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________________ ७०८ श्रीमद राजचन्द्र अपने आपसे वर्तन करना वही स्वच्छन्द है ऐसा कहा है । सद्गुरु की आज्ञा के बिना श्वासोच्छ्वास क्रियाके सिवाय अन्य कुछ न करे ! साघु लघुशका भी गुरुसे पूछकर करे ऐसी ज्ञानी पुरुषोंकी आज्ञा है । 7 स्वच्छन्दाचारसे शिष्य बनाना हो तो साधु आज्ञा नही माँगता अथवा उसकी कल्पना करें लेता, है | परोपकार करनेमे अंशुभ कल्पना रहती हो, और वैसे ही अनेक विकल्प करके स्वच्छन्द न छोड़े वह अज्ञानी आत्माको विघ्न करता है, तथा ऐसे सब प्रकारोका सेवन करता है, और परमार्थका मार्ग छोड़कर वाणी कहता है यही अपनी चतुराई और इसीको स्वच्छन्द कहा है । ज्ञानीकी प्रत्येक आज्ञा कल्याणकारी है । इसलिये उसमे न्यूनाधिक या छोटे-बडेकी कल्पना न " 1 करे । तथा ́ उस वातका आग्रह करके झगड़ा न करें । ज्ञानी जो कहते हैं वही कल्याणका हेतु है यो समझमे आये तो स्वच्छन्द मिटता है। ये हो यथार्थ ज्ञानी है इसलिये ये जो कहते हैं तदनुसार ही करें । दूसरा कोई विकल्प न करें 1 ८. 4 जगतमे भ्राति न रखें, इसमें कुछ भी नही है । यह बात ज्ञानीपुरुष बहुत ही अनुभवसे वाणी द्वारा कहते है । जीव विचार करे कि मेरी बुद्धि स्थूल है, मुझे समझ मे नही आता । ज्ञानी जो कहते है वे वाक्य सच्चे है, यथार्थ है,' यो समझे तो सहजमे ही दोष कम होते हैं । जैसे एक वर्षासे बहुतसी वनस्पति फूट निकलती है, वैसे ज्ञानोको एक भी आज्ञाका आराधन करते, हुए बहुतसे गुण प्रगट हो जाते है !. ラ यदि ज्ञानीको यथार्थ प्रतीति हो गयी है, और ठीक तरहसे जाँच की है कि 'ये सत्पुरुष है, इनकी दशा सच्ची आत्मदशा है, और इनसे कल्याण होगा ही,' और ऐसे ज्ञानीके वचनोके अनुसार प्रवृत्ति करे, तो बहुत ही दोष, विक्षेप मिट जाते हैं । जहाँ जहाँ देखे वहाँ वहाँ अहकाररहित वर्तन करता है और उसका सभी प्रवर्तन सीधा ही होता है । यो सत्सग, सत्पुरुपका योग अनत गुणोका भण्डार है । जो जगतको बतानेके लिये कुछ नही करता उसीको - सत्सग फलीभूत होता है ।, सत्सग और, सत्पुरुषके बिना त्रिकालमे कल्याण होता ही नही | - - 7: シ बाह्य त्यागसे जीव बहुत ही भूल जाता है । वेश, वस्त्र आदिमे भ्राति भूल जायें । आत्मांकी विभावदशा और स्वभावदशाको पहचानें । कई कर्मोंको भोगे बिना छुटकारा नही है । ज्ञानीको भी उदयकर्मका सम्भव है । परन्तु गृहस्थपना साधुप की अपेक्षा अधिक है यो बाहर से कल्पना करे तो किसी शास्त्रका योगफल नही मिलता । तुच्छ पदार्थ मे भी वृत्ति चलायमान होती है। चौदह पूर्वधारी भी वृत्तिकी चपलतासे और अहता स्फुरित हो जाने से निगोद आदिमे परिभ्रमण करते हैं । ग्यारहवें गुणस्थानसे भी जीव क्षणिक लोभसे, गिरकर पहले गुणस्थानमे आता है । 'वृत्ति शांत की है,' ऐसी अहंता जीवको स्फुरित होनेसे, ऐसे भुलावे भटक पड़ता है । अज्ञानीको धन आदि पदार्थोंमे अतीव आसक्ति होनेसे कोई भी चीज खो जाये तो उससे अनेक प्रकारकी आर्त्तध्यान आदिकी वृत्तिको बहुत प्रकारसे फैलाकर, प्रसारित कर कर क्षोभको प्राप्त होता है, क्योकि उसने उस पदार्थ की तुच्छता नही समझी, परन्तु उसमे महत्त्व माना है | मिट्टी के घड़ेमे तुच्छता, समझी है इसलिये उसके फूट जानेसे क्षोभ प्राप्त नही होता । चॉदी, सुवर्ण आदिमे महत्त्व माना है इसलिये उनका वियोग होनेसे अनेक प्रकारसे आर्त्तध्यानकी वृत्तिको स्फुरित करता है । जो जो वृत्तिमे स्फुरित होता है और इच्छा करता है, वह 'आस्रव' है । 8
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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