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________________ ७०४ श्रीमद राजचन्द्र 'छोड दे, तूने अहवृत्तिसे जो किया था उसे छोड दे और ज्ञानी पुरुपोको आज्ञासे वैसा कर ।' और वैसा करे तो कल्याण होता है । अनादिकालसे दिनमे और रातमे खाया है परन्तु जोवका मोक्ष नही हुआ। । इस कालमे आराधकताके कारण घटते जाते हैं, और विराधकताके लक्षण बढते जाते हैं। केशीस्वामी वडे थे, और पार्श्वनाथस्वामीके शिष्य थे, तो भी पाच महाव्रत अगीकार किये थे। केशीस्वामी और गौतमस्वामी महा विचारवान थे, परन्तु केशीस्वामीने यो नही कहा 'मैं दीक्षामे बडा हूँ, इसलिये आप मेरे पास चारित्र ग्रहण करें।' विचारवान और सरल जीव, जिसे तुरत कल्याणयुक्त हो जाना है उसे ऐसी बातका आग्रह नही होता ।। __ कोई साधु जिसने प्रथम आचार्यरूपसे अज्ञानावस्थासे उपदेश किया हो, और पीछेसे उसे ज्ञानीपुरुषका समागम होनेपर वे ज्ञानीपुरुष यदि आज्ञा करे कि जिस स्थलमे आचार्यरूपसे उपदेश किया हो वहाँ जाकर एक कोनेमे सबसे पीछे बैठकर सभी लोगोसे ऐसा कहे कि 'मैंने अज्ञानतासे उपदेश दिया है, इसलिये आप भूल न खायें', तो साधुको उस तरह किये बिना छुटकारा नहीं है । यदि वह साधु'यो कहे कि 'मुझसे ऐसा नहीं होगा, इसके बदले आप कहे तो पहाडपरसे कूद पडूं अथवा दूसरा चाहे जो कहे वह करूं, परन्तु वहाँ तो मुझसे नही जाया जा सकेगा।' ज्ञानी कहते है कि तब इस बातको जाने दे। हमारे संगमे भी मत आना। कदाचित् तू लाख बार पर्वतसे गिरे तो भी वह किसी कामका नही है। यहाँ तो वैसे करेगा तो ही मोक्ष मिलेगा। वैसा किये बिना मोक्ष नही है; इसलिये जाकर क्षमापना मांगे तो ही कल्याण होगा।' . गौतमस्वामी चार ज्ञानके धारक थे और आनन्द श्रावकके पास गये थे। आनन्द श्रावकने कहा, "मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ है।', तब गौतमस्वामीने कहा 'नही, नही, इतना सारा हो नही सकता, इसलिये आप क्षमापना ले।' तब आनन्द श्रावकने विचार किया कि ये मेरे गुरु हैं, कदाचित् इस समय भूल करते हो तो भी भूल करते हैं, यह कहना योग्य नहीं; गुरु हैं इसलिये शातिसे कहना योग्य है, यह सोचकर आनन्द श्रावकने कहा कि 'महाराज । सद्भूत वचनका मिच्छा, मि दुक्कड या असद्भूत वचनका मिच्छा मि दुक्कडं?' तब गोतमस्वामीने कहा 'असद्भूत वचनका मिच्छा मि दुक्कडं ।' तब आनन्द श्रावकने कहा, 'महाराज | मै मिच्छा मि दुक्कड लेने योग्य नही हूँ।' फिर गौतमस्वामी चले गये, और जाकर महावीरस्वामीसे पूछा.। (गौतमस्वामी उसका समाधान कर सकते थे, परन्तु-गुरुके होते हुए वैसा न करे जिससे महावीरस्वामीके पास जाकर यह सब, वात कही ।) महावीरस्वामीने कहा, 'हे गौतम , हाँ, आनद देखता है ऐसा ही है और आपकी भूल है, इसलिये आप आनदके पास जाकर क्षमा मांगें।' 'तहत्' कहकर गौतमस्वामी क्षमा मांगनेके लिये चल दिये। यदि गौतमस्वामीने मोहनामके महा सुभटका पराभव न किया होता तो वे वहाँ न जाते, और कदाचित गौतमस्वामी यो कहते, कि 'महाराज | आपके इतने सब शिष्य हैं, उनकी मै चाकरी करूँ, परतु वहाँ तो नही जाऊँ', तो वह बात मान्य न होती । गौतमस्वामी स्वय वहाँ जाकर क्षमा मॉग आये। 'सास्वादन-समकित' अर्थात् वमन किया हुआ समकित, अर्थात् जो परीक्षा हुई थी, उसपर आवरण आ जाये तो भी मिथ्यात्व और समकितकी कीमत उसे भिन्न भिन्न लगती है । जैसे विलोकर छाछमेसे मक्खन निकाल लिया, और फिर वापस छाछमे डाला । मक्खन और छाछ पहले जैसे परस्पर मिले हुए थे वैसे फिरसे नही मिलते, उसी तरह समकित मिथ्यात्वके साथ नहीं मिलता । हीरामणिकी कीमत हुई है, परतु काचकी मणि आये तब हीरामणि साक्षात् अनुभवमे आता है, यह दृष्टात भी यहाँ घटता हैं। ____निग्रंथगुरु अर्थात् पैसारहित गुरु नही, परन्तु जिसका ग्रन्थिभेद हो गया है, ऐसे गुरु । सद्गुरुकी पहचान होना व्यवहारसे ग्रन्थिभेद होनेका उपाय है। जैसे किसी मनुष्यने , काचकी मणि लेकर सोचा कि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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