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________________ उपदेश छाया ७०५ 'मेरे पास असली मणि है, ऐसी कही भी नही मिलती।' फिर उसने एक विचारवानके पास जाकर कहा, 'मेरो मणि असली है।' फिर उस विचारवानने उससे बढिया बढिया और अधिकाधिक मूल्यकी मणियाँ बताकर कहा कि 'देखें, इनमे कुछ फरक लगता है ? ठीक तरहसे देखें ।' तब उसने कहा, 'हाँ फरक लगता है। फिर उस विचारवानने झाड-फानूस बताकर कहा, देखें आपकी मणि जैसी तो हजारो मिलती है। सारा झाड़-फानूस दिखानेके बाद उसे जब मणि दिखायी तब उसे उसकी ठीक ठोक कीमत मालूम हुई, फिर उसने नकलीको नकली जानकर छोड दिया । बादमे कोई प्रसग मिलनेसे उसने कहा कि 'तूने जिस मणिको असली समझा है ऐसी मणियाँ तो बहुत मिलती हैं। ऐसे आवरणोसे वहम आ जानेसे जीव भूल जाता है, परन्तु बादमे उसे नकली समझता है। जिस प्रकार असलीकी कीमत हुई हो उस प्रकारसे वह तुरत जागृतिमें आता है कि असली अधिक नही होती, अर्थात् आवरण तो होता है परन्तु पहलेकी पहचान भूली नहीं जाती। इस प्रकार विचारवानको सद्गुरुका योग मिलनेसे तत्त्वप्रेतोति होती है, परन्तु फिर मिथ्यात्वके संगसे आवरण आ जानेसे शका हो जाती है । यद्यपि तत्त्वप्रतीति नष्ट नही होती परन्तु उसंपर आवरण आ जाता है। इसका नाम 'सास्वादनसम्यक्त्व' है। सद्गुरु, सद्देव, केवली द्वारा प्ररूपित धर्मको सम्यक्त्व कहा है, परन्तु सद्देव और केवली ये दोनो सद्गुरुमे समाये हुए हैं। सद्गुरु और असद्गुरुमे रात-दिनका अन्तर है । एक जौहरी था । व्यापार करते हुए बहुत नुकसान हो जानेसे उसके पास कुछ भी द्रव्य नही रहा । मरनेका समय आ पहुंचा, तब स्त्री-बच्चोका विचार करता है कि मेरे पास कुछ भी द्रव्य नही है, परन्तु यदि अभी यह बात करूंगा तो लड़का छोटो उमरका है, इससे उसकी देह छूट जायेगी।' उसने स्त्रोको ओर देखा तो स्त्रीने पूछा, 'आप कुछ कहते हैं " पुरुषने कहा, 'क्या कहूँ ? स्त्रीने कहा कि 'जिससे मेरा और बच्चेका उदर-पोषण हो ऐसा कोई उपाय बताइये और कुछ कहिये।' तब उसने विचार कर कहा कि घरमे जवाहरातकी पेटीमे कीमती नगको डिबिया है उसे, जब तुझे बहुत जरूरत पडे तब निकाल कर मेरे मित्रके पास जाकर बिकवा देना, उससे तुझे बहुतसा द्रव्य मिल जायेगा। इतना कहकर वह पुरुष कालधर्मको प्राप्त हुआ। कुछ दिनोके बाद विना पैसे उदरपोषणके लिये पीडित होते देखकर, वह लडका, अपने पिताके पूर्वोक्त जवाहरातके नग लेकर अपने चाचा (पिताके मित्र जौहरी) के पास गया और कहा कि 'मुझे ये नग बेचने हैं, उनका जो द्रव्य आये वह मुझे दें।" तव उम जौहरी भाईने पूछा, 'ये नग वेचकर क्या करना है ?" "उदर भरनेके लिये पैसोकी जरूरत है', यो उस लडकेने कहा। तब उस जौहरीने कहा, 'सौ-पचास रुपये चाहिये तो ले जा, और रोज मेरी दुकानपर आते रहना, और खर्च ले जाना । ये नग अभी रहने दे।' उस लडकेने उस भाईकी वातको मान ली, और उस जवाहरातको वापस ले गया। फिर रोज वह लडका जौहरीकी दुकानपर जाने लगा और जौहरोके समागमसे हीरा, पन्ना, माणिक, नीलम सबको पहचानना सीख गया और उसे उन सवकी कीमत मालूम हो गयी। फिर उस जौहरीने कहा, 'तू अपना जो जवाहरात पहले वेचने लाया था उसे ले आ, अव वेच देंगे।' फिर घरसे लडकेने अपने जवाहरातकी डिविया लाकर देखा तो नग नकली लगे इसलिये तुरत फेंक दिये । तब उस जौहरीने पूछा कि 'तूने फेक क्यो दिये " तब उसने कहा कि 'एकदम नकली हैं इसलिये फेंक दिये है।' यदि उस जौहरीने पहलेसे ही नकली कहे होते तो वह मानता नही, परन्तु जब स्वयको वस्तुको कीमत मालूम हो गयी और नकलीको नकलीरूपसे जान लिया तब जौहरोको कहना नहीं पड़ा कि नकली हैं। इसी तरह स्वयको सद्गुरुकी परीक्षा हो जानेपर असद्गुरुको असत् जान लिया तो फिर जीव तुरत ही असद्गुरुको छोडकर सद्गुरुके चरणमे आ पडता है, अर्थात् अपनेमे कीमत करनेको शक्ति आनी चाहिये।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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