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________________ उपदेश छाया ७०३ दृढ निश्चय करे कि बाहर जाती हुई वृत्तियोका क्षय करके अंतवृत्ति करना, अवश्य यही ज्ञानीकी आज्ञा है । स्पष्ट प्रीति से ससारका व्यवहार करने की इच्छा होती हो तो समझना कि ज्ञानीपुरुषको देखा नही है । जिस प्रकार प्रथम ससार मे रससहित वर्तन करता हो उस प्रकार, ज्ञानीका योग होनेके बाद वर्तन न करे, यही ज्ञानीका स्वरूप है । ज्ञानीको ज्ञानदृष्टि, अतर्दृष्टि से देखनेके बाद स्त्रीको देखकर राग उत्पन्न नही होता, क्योकि ज्ञानीका स्वरूप विषयसुखकल्पनासे भिन्न है। जिसने अनत सुखको जाना हो उसे राग नही होता, और जिसे J राग नही होता उसीने ज्ञानीको देखा है और उसीने ज्ञानीपुरुषके दर्शन किये है, फिर स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूपसे भासित हुए बिना नही रहता, क्योकि ज्ञानीके वचनोको यथार्थ रूपसे सत्य जाना हैं । ज्ञानीके समोप देह और आत्माको भिन्न -- पृथक् पृथक् जाना है, उसे देह और आत्मा भिन्न-भिन्न भासित होते है, और इससे स्त्रीका शरीर और आत्मा भिन्न भासित होते हे । उसने स्त्रीके शरीरको मास, मिट्टी, हड्डी आदिका पुतला समझा है इसलिये उसमे राग उत्पन्न नही होता । सारे शरीरका बल, ऊपर-नीचेका दोनो कमरके ऊपर है । जिसकी कमर टूट गई है उसका सारा बल चला गया । विषयादि जीवकी तृष्णा है । ससाररूपी शरीरका बल इस विषयादि रूप कमरके ऊपर हैं । ज्ञानी पुरुषका बोध लगने से विषयादि रूप कमर टूट जाती है । अर्थात् विषयादिकी 'तुच्छता' लगती है; और इस प्रकार ससारका बल घटता है, अर्थात् ज्ञानीपुरुपके बोधमे ऐसा सामर्थ्य है। { श्री महावीरस्वामीको सगम नामके देवताने बहुत ही, प्राणत्याग होनेमे देर न लगे ऐसे परिपह दिये । उस समय कैसी अद्भुत समता । उस समय उन्होने विचार किया कि जिनके दर्शन करनेसे कल्याण होता है, नामस्मरण करनेसे कल्याण होता है, उनके सगमे आकर इस जीवको अनन्त संसार बढनेका कारण होता है । ऐसी अनुकम्पा आनेसे आँखमे आसू आ गये । कैसी अद्भुत समता । परकी दया किस तरह फूट निकली थी ! उस समय मोहराजाने यदि जरा धक्का लगाया होता तो तो तुरत ही तोर्थंकरत्वका सभव, न रहता, यद्यपि देवना तो भाग जाता । परन्तु जिसने मोहनीय मलका मूलसे नाश किया है, अर्थात् मोहको जीता है, वह मोह कैसे करे ? श्री महावीरस्वामीके समीप गोशालेने आकर दो साधुओको जला डाला, तव यदि थोडा ऐश्वयं बताकर साधुओकी रक्षा को होती तो तीर्थंकरत्वको फिरसे करना पडता, परन्तु जिसे 'मै गुरु हूँ, ये मेरे शिष्य हैं, ऐसी भावना नही है उसे वैसा कोई प्रकार नही करना पडता । 'मै शरीर-रक्षणका दातार नही हूँ, केवल भाव-उपदेशका दातार हूँ, यदि मैं रक्षा करूँ तो मुझे गोशालेकी रक्षा करनी चाहिये अथवा सारे जगतकी रक्षा करनी उचित है', ऐसा सोचा । अर्थात् तीर्थंकर यो ममत्व करते ही नहीं । वेदात इस कालमे चरमशरीरी कहा है । जिनेन्द्र के अभिप्रायके अनुसार भी इस कालमे एकावतारी जीव होता है । यह कुछ मामूली बात नही है क्योकि इसके बाद कुछ मोक्ष होनेमे अधिक देर नही है । जरा कुछ बाकी रहा हो, रहा है वह फिर सहजमे चला जाता है। ऐसे पुरुष की दशा, वृत्तियाँ कैसी होती है ? अनादिको बहुतसो वृत्तियाँ शात हो गयी होती है; और इतनी अधिक शात हो गयी होती हैं कि रागद्वेष सब नष्ट होने योग्य हो जाते हैं, उपशात हो जाते हैं । सद्वृत्तियाँ होनेके लिये जो जो कारण, साधन बताये हुए होते है उन्हें न करने को ज्ञानी कभी नही कहते । जैसे रातमे खानेसे हिंसाका कारण होता है, इसलिये ज्ञानी आज्ञा करते हो नही कि त रातमे खा । परन्तु जो जो अभावसे आचरण किया हो, और रात्रिभोजनसे हो अथवा अमुनेही गोक्ष हो, अथवा इसमे ही मोक्ष है, ऐसा दुराग्रहसे माना हो तो वैसे दुराग्रहोको छुडानेके लिये ज्ञानीपुरुष कहते हैं कि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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