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________________ ७०२ श्रीमद् राजचन्द्र आत्माके लिये जो मोक्षका हेतु है वह 'सुपच्चक्खान'। आत्माके लिये जो समारका हेतु है वह 'दुपच्चक्खान' | ढूंढिया और तपा कल्पना करके जो मोक्ष जानेका मार्ग कहते है तदनुसार तो तीनो कालमें मोक्ष नही है। उत्तम जाति, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल और सत्सग इत्यादि प्रकारसे आत्मगुण प्रकट होता है। . आपने माना है वैसा आत्माका मूल स्वभाव नहीं है, और आत्माको कर्मने कुछ एकदम आवृत नही कर डाला है । आत्माके पुरुषार्थधर्मका मार्ग बिलकुल खुला है। वाजरे अथवा गेहूँके एक- दानेको लाख वर्ष तक रख छोड़ा हो (सड जाये यह बात हमारे ध्यानमे है) परतु यदि उसे पानी, मिट्टी आदिका सयोग न मिले तो उसका उगना सम्भव नही है, उसी तरह सत्सग और विचारका योग न मिले तो आत्मगुण-प्रगट नही होता। . श्रेणिक राजा जरकमे है, परतु समभावमे है, समकिती है, इसलिये उन्हे दु ख नहो है। चार लकडहारोके दृष्टातसे चार प्रकारके जीव है :-चार लकडहारे जगलमे गये। पहले मबने लकडियाँ ली। वहाँसे आगे चले कि चदन आया.। वहाँ तीनने चदन ले लिया । एकने कहा 'ना मालूम इस तरहकी लकडियाँ विकें या नहीं, इसलिये मुझे तो नही लेनी हैं। हम जो रोज लेते है वही मुझे तो अच्छी है ।' आगे चलनेपर सोना-चाँदी आया। तीनमेसे दोने चदन फेंककर सोना-चांदी लिया, एकने नही लिया । वहाँसे आगे चले कि रत्नचितामणि आया। दोमेसे एकने सोना फेंककर रत्नचिंतामणि लिया, एकने सोना रहने दिया। . -(१) यहाँ इस तरह दृष्टातका उपनय ग्रहण करे कि जिसने लकडियाँ ही ली और दूसरा कुछ भी नही लिया उस प्रकारका एक जीव है कि जिसने लौकिक काम करते हुए ज्ञानीपुरुपको नही पहचाना, दर्शन भी नही किया, इससे उसके जन्म-जरा-मरण भी दूर नही हुए, गति भी नहीं सुधरी। - (२) जिसने चदन लिया और लकड़ियां फेंक दी, वहाँ दृष्टात यो घटित करे कि जिसने थोडा सा ज्ञानीको पहचाना, दर्शन किये, जिससे उसकी गति अच्छी हुई। .. (३) सोना आदि लिया, इस दृष्टातको यो घटित करे कि जिसने ज्ञानीको उस प्रकारसे पहचाना इसलिये उसे देवगति प्राप्त हुई। - (४) जिसने रत्नचितामणि लिया, इस दृष्टातको यो घटित करें कि जिस जीवको ज्ञानीकी यथार्थ पहचान हुई वह जीव भवमुक्त हुआ। एक वन है । उसमे माहात्म्यवाले पदार्थ हैं। उनकी जितनी पहचान होती है उतना माहात्म्य लगता है, और उसो प्रमाणमे वह उसे ग्रहण करता है। इस तरह ज्ञानीपुरुषरूपी वन है। ज्ञानी पुरुपका अगम्य, अगोचर माहात्म्य है। उसकी जितनी पहचान होती है उतना उसका माहात्म्य लगता है, और उस उस प्रमाणमे उसका कल्याण होता है। 'सासारिक खेदके कारणोको देखकर जीवको कडवाहट मालूम होते हुए भी वह वैराग्यपर पैर रखकर चला जाता है परतु वैराग्यमे प्रवृत्ति नहीं करती। ... लोग ज्ञानोको लोकदृष्टिसे देखे तो पहचान नही सकते। आहार आदिमे भी ज्ञानीपुरुषकी प्रवृत्ति वाह्य रहती है। किस तरह ? जो घडा ऊपर (आकाशमें) है, और पानीमे खडे रहकर, पानीमे दृष्टि रखकर, बाण साधकर उस ( ऊपरके घडे ) को वीवना है। लोग समझते है कि बीधनेवालेकी दृष्टि पानीमे है, परन्तु वास्तवमे देखें तो जिस घडेको वीधना है उसका लक्ष्य करनेके लिये वीवनेवालेकी दृष्टि आकाशमे है । इस तरह ज्ञानीकी पहचान किसी विचारवानको होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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