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________________ ६९९ उपदेश छाया वर्तन नहीं होता, वैसा वर्तन करे तो लोकनिंदाका कारण होता है, और इससे सत्पुरुपकी निंदा होती है। और सत्पुरुषकी निंदा अपने निमित्तसे हो यह आशातनाका कारण अर्थात् अधोगतिका कारण होता है, इसलिये वैसा न करें। ...सत्सग हुआ है उसका क्या परमार्थ ? सत्सग हुआ हो उस जीवको कैसी दशा होनी चाहिये ? इसे ध्यानमे लें । पाँच वर्षका सत्सग हुआ है, तो उस सत्सगका फल जरूर होना चाहिये और जीवको तदनुसार चलना चाहिये । यह वर्तन जीवको अपने कल्याणके लिये ही करना चाहिये परन्तु -लोक-दिखावेके लिये नही । जीवके वर्तनसे लोगोमे ऐसी प्रतीति हो कि इसे जो मिले हैं वह अवश्य ही कोई सत्पुरुष हैं। और उन सत्पुरुपके समागमका, सत्सगका यह फल है, इसलिये अवश्य ही वह सत्सग हे इसमे सदेह नही। '_' वारवार बोध'सुननेकी इच्छा रखनेकी अपेक्षा सत्पुरुपके चरणोके समीप रहनेकी इच्छा और चिंतना विशेष'रखे । जो बोध हुआ है उसे स्मरणमें रखकर विचारा जाये तो अत्यन्त कल्याणकारक है। .! ! .. ' '४ राळज, श्रावण वदी ६, १९५२ ' ।। - भक्ति यह सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । भक्तिसे अहंकार मिटता है, स्वच्छद दूर होता है, और सीधे मार्गमे चला जाता है, अन्य विकल्प दूर होते है । ऐसा यह भक्तिमार्ग श्रेष्ठ है। .' .... प्र-आत्माका अनुभव किसे हुआ कहा जाता है ? ' ' " उ०—जिस तरह तलवार म्यानमेसे निकालनेपर भिन्न मालूम होती है उसी तरह जिसे आत्मा देहसे स्पष्ट भिन्न मालूम होता है उसे आत्माका अनुभव हुआ कहा जाता है। जिस तरह दूध और पानी मिले हुए है उसी तरह आत्मा और देह मिले हुए रहते है। जिस तरह दूध और पानी क्रिया करनेसे जब अलग हो जाते है तब भिन्न कहे जाते हैं, उसी तरह आत्मा और देह जब क्रियासे अलग, हो जाते है तब भिन्न कहे जाते है । जब तक दूध दूधके और पानी पानीके परिणामको प्राप्त नहीं करता तब तक क्रिया करते रहना चाहिये। यदि आत्माको जान लिया हो तो फिर एक पर्यायसे लेकर सारे स्वरूप तकको भ्राति नही होती। - , -, अपने दोप कम हो जायें, आवरण दूर हो जाये तभी समझें कि ज्ञानोके वचन सच्चे है। ..आराधकता नही है, इसलिये प्रश्न उल ही. करता है। हमे भव्य-अभव्यकी चिंता नहीं रखनी चाहिये । अहो | अहो !। अपने घरको वात छोडकर बाहरकी बात करता है । परन्तु वर्तमानमे जो उपकारक हो वही करें । इसलिये अभी तो जिससे लाभ हो वैसा धर्म व्यापार करें। - ज्ञान उसे कहते है जो हर्ष-शोकके समय उपस्थित रहे, अर्थात् हर्प-शोक न हो । - सम्यग्दृष्टि हर्प-शोक आदिके प्रसगमे एकदम तदाकार नहीं होते। उनके निध्वंस परिणाम नही होते; अज्ञान खड़ा हो कि जाननेमे आनेपर तुरत ही दवा देते है, उनमे बहुत ही जागृति होती है। जैसे कोरा कागज पढता हो वैसे उन्हे हर्ष-शोक नही होते । भय अज्ञानका है। जैसे सिंह चला आता हो तो सिंहनीको भय नही लगता, परन्तु मनुष्य भयभीत होकर भाग जाता है। मानो वह कुत्ता चला आता हो ऐसे सिंहनीको लगता है। इसी तरह ज्ञानी पौद्गलिक सयोगको समझते है। राज्य मिलनेपर आनद हो तो वह अज्ञान । ज्ञानीकी दशा बहुत ही अद्भुत है। - यथातथ्य कल्याण समझमे नही आया उसका कारण वचनको आवरण करनेवाला दुराग्रह भाव. कपाय है । दुराग्रह भावके कारण मिथ्यात्व क्या हे यह समझमे नही आता; दुराग्रहको छोड़े कि मिथ्यात्व दूर भागने लगता है। कल्याणको अकल्याण और अकल्याणको कल्याण समाना मिथ्यात्व है। दुराग्रह आदि भावके कारण जीवको कल्याणका स्वरूप बतानेपर भी समझ नहीं आता। पाय, दराग आदि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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