SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 831
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९८ श्रीमद राजचन्द्र सत्पुरुषके सच्चे स्वरूपको जानना आवश्यक है। मध्यम सत्पुरुष हो तो शायद थोड़े समयमे उसकी पहचान होना सम्भव है, क्योकि वह जीवकी इच्छाके अनुकूल वर्तन करता है, सहज बातचीत करता है ओर आदरभाव रखता है, इसलिये जीवको प्रीतिका कारण हो जाता है। परन्तु उत्कृष्ट सत्पुरुषको तो वैसी भावना नही होती अर्थात् निस्पृहता होनेसे वे वैसा भाव नही रखते, इसलिये या तो जीव रुक जाता है या दुविधामे पड जाता है अथवा उसका जो होना हो सो होता है।। ___जैसे बने वैसे सद्वृत्ति और सदाचारका सेवन करें। ज्ञानीपुरुष कोई व्रत नही देते अर्थात् जब प्रगट मार्ग कहे और व्रत देनेकी बात करे तब व्रत अगीकार करे । परन्तु तब तक यथाशक्ति सव्रत और सदाचारका सेवन करनेमे तो ज्ञानीपुरुपकी सदैव आज्ञा है। दभ, अहकार, आग्रह, कोई भी कामना, फलकी इच्छा और लोक दिखावेकी बुद्धि ये सब दोष हैं उनसे रहित होकर व्रत आदिका सेवन करें, उनकी किसी भी सप्रदाय या मतके व्रत, प्रत्याख्यान आदिके साथ तुलना न करें, क्योकि लोग जो व्रत पच्चक्खान आदि करते है उनमे उपर्युक्त दोष होते है । हमे तो उन दोषोसे रहित और आत्मविचारके लिये करने हैं, इसलिये उनके साथ कभी भी तुलना न करें। . . . उपर्युक्त दोषोको छोडकर सभी सवृत्ति और सदाचारका उत्तम प्रकारसे सेवन करें। ' जो निदंभतासे, निरहकारतासे और निष्कामतासे सव्रत करता है उसे देखकर अडोसी-पडोसी और दूसरे लोगोको भी उसे अगीकार करनेका भान होता है । जो कुछ भी सव्रत करें वह लोकदिखावेके लिये नही अपितु मात्र अपने हितके लिये करें। निर्दभतासे होनेसे लोगोपर उसका असर तुरन्त होता है । कोई भी दभसे दालमे ऊपरसे नमक न लेता हो और कहे कि 'मै ऊपरसे कुछ नही लेता, क्या नही चलता? इससे क्या ?" इससे कुछ लोगोपर असर नहीं होता। और जो किया हो वह भी उलटा कर्मबंधके लिये हो जाता है। इसलिये यों न करते हुए निर्दभतासे और उपर्युक्त दूषण छोडकर व्रत आदि करें। प्रतिदिन नियमपूर्वक आचाराग आदि पढा करें । आज एक शास्त्र पढा और कल दूसरा पढा यो न करते हुए क्रमपूर्वक एक शास्त्रको पूरा करें। आचारागसूत्रमे कितने ही आशय गम्भीर है, सूत्रकृतागमे भी गम्भीर है, उत्तराध्ययनमे भी किसी किसी स्थलमे ' गम्भीर है। दशवैकालिक सुगम है। आचारागमे कोई स्थल, सुगम है, परन्तु गम्भीर है। सूत्रकृताग किसी स्थलमे सुगम है, उत्तराध्ययन किसी जगह सुगम है, इसलिये नियमपूर्वक पढ़ें । यथाशक्ति उपयोगपूर्वक गहराईमे जाकर हो सके उतना विचार करे। देव अरिहत, गुरु निग्रंथ और केवलीका प्ररूपित धर्म, इन तीनोको श्रद्धाको जैनमे सम्यक्त्व कहा है । मात्र गुरु असत् होनेसे देव और धर्मका भान न था । सद्गुरु मिलनेसे उस देव और धर्मका भान हुआ। इसलिये सद्गुरुके प्रति आस्था यही सम्यक्त्व है। जितनी जितनी आस्था और अपूर्वता उतनी उतनी सम्यक्त्वकी निर्मलता समझें। ऐसा सच्चा सम्यक्त्व प्राप्त करनेकी इच्छा, कामना सदैव रखें। - कभी भी दंभसे या अहकारसे आचरण करनेका जरा भी मनमे न लायें। जहां कहना योग्य हो वहाँ कहे, परन्तु सहज स्वभावसे कहे । मदतासे न कहे और आक्रोशसे भी न कहे । मात्र सहज स्वभावसे शातिपूर्वक कहे । . सद्वतका आचरण शूरतापूर्वक करे, मद परिणामपूर्वक नहीं । जो जो आगार बताये हो, उग सबको ध्यानमे रखें, परन्तु भोगतेको बुद्धिसे उनका भोग न करें। सत्पुरुपकी तेंतीस आशातनाएँ आदि टालनेका कहा है, उनका विचार कीजिये । आशातना करनेकी बुद्धिसे आशातना करें । सत्सग हुआ है उस सत्सगका फल होना चाहिये । कोई भी अयोग्य आचरण हो जाये अथवा अयोग्य व्रत सेवित हो जाये वह सत्सगका फल नहीं है। सत्सग करनेवाले जीवसे वैसा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy