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________________ श्रीमद राजचन्द्र छोडे न जायें तो फिर वे विशेष प्रकार पोडित करते है । कपाय सत्तारूपसे है, निमित्त आनेपर खडे होते हैं, तब तक खड़े नहीं होते । प्र० - क्या विचार करनेसे समभाव आता है ? ७०० उ०—विचारवानको पुद्गलमे तन्मयता, तादात्म्य नही होता । अज्ञानी पौद्गलिक सयोगके हर्षका पत्र पढे तो उसका चेहरा प्रसन्न दिखायी देता है, और भयका पत्र आता है तो उदास हो जाता है । सर्प देखकर आत्मवृत्तिमे भयका हेतु हो तव तादात्म्य कहा जाता है । जिसे तन्मयता होती है उसे ही हर्प-शोक होता है । जो निमित्त है वह अपना कार्य किये बिना नही रहता । मिथ्यादृष्टिको बीचमे साक्षी ( ज्ञानरूपी) नही है । देह और आत्मा दोनो भिन्न है ऐमा ज्ञानीको भेद हुआ है। ज्ञानोको बीचमे साक्षी है । ज्ञानजागृति हो तो ज्ञानके वेगसे, जो जो निमित्त - मिले उन सबको पीछे मोड सकते है । इसलिये जीव जब विभाव-परिणाममे रहता है उस समय कर्म बाँधता है, और स्वभाव-परिणाममे रहता है उस समय कर्म नहीं बांधता । इस तरह सक्षेपमे परमार्थ कहा है । परन्तु जोव नही समझता, विस्तार करना पडा है, जिससे बड़े शास्त्रोकी रचना हुई है । स्वच्छद दूर हो तभी मोक्ष होता है । सद्गुरु की आज्ञा के बिना आत्मार्थी जीवके श्वासोच्छ्वास के सिवाय अन्य कुछ भी नही चलता ऐसो जिनेन्द्रकी आज्ञा है । प्र० - पांच इन्द्रियाँ किस तरह वश होती है ? - वस्तुओपर तुच्छभाव लानेसे । जैसे फूल सूख जानेसे उसकी सुगध थोडी देर रहकर नष्ट हो जाती है, और फूल मुरझा जाता है, उससे कुछ सन्तोष नही होता, वैसे तुच्छभाव आनेसे इन्द्रियोके विपयमे लुब्धता नही होती। पाँच इद्रियोमे जिह्वा इन्द्रियको वश करनेसे वाकीकी चार इन्द्रियाँ सहज ही वश हो जाती है । उ० ज्ञानीपुरुपको शिष्यने प्रश्न पूछा, "बारह उपाग तो बहुत गहन है, और इसलिये वे मुझसे समझे नही जा सकते, अतः वारह उपागका सार ही बताये कि जिसके अनुसार चलूं तो मेरा कल्याण हो जाये।” सद्गुरुने उत्तर दिया : बारह उपागका सार आपसे कहते है- "वृत्तियोका क्षय करना ।" ये वृत्तियाँ दो प्रकारकी कही हैं -- एक बाह्य और दूसरी अतर । बाह्यवृत्ति अर्थात् आत्मासे बाहर वर्तन करना । आत्माके अन्दर परिणमन करना, उसमे समा जाना, यह अतवृत्ति । पदार्थको तुच्छता भासमान हुई हो तो अतवृत्ति रहती है । जिस तरह थोडीसी कोमतके मिट्टी के घडेके फूट जानेके बाद उसका त्याग करते हुए आत्मवृत्ति क्षोभको प्राप्त नही होती, क्योकि उसमे तुच्छता समझी गयो है । इसी तरह ज्ञानीको जगतके सभी पदार्थ तुच्छ भासमान होते हैं । ज्ञानीको एक रुपयेसे लेकर सुवर्ण इत्यादि तक सब पदार्थमे एकदम मिट्टीपन ही भासित होता है । स्त्री हड्डी मां का पुतला है ऐसा स्पष्ट जाना है, इसलिये विचारवानकी वृत्ति उसमे क्षुब्ध नही होती, फिर भी माधुको ऐमी आज्ञा की है कि जो हजारों देवागनाओसे चलित न हो सके ऐसा मुनि भी, कटे हुए नाक-कानवाली जो सौ बरसकी वृद्ध स्त्री है उसके समीप भी न रहे, क्योंकि वह वृत्तिको क्षुब्ध करती ही है, ऐगा ज्ञानोने जाना है । साधुको इतना ज्ञान नहीं है कि वह उससे चलित हो न हो सके, ऐसा मानकर उसके समीप रहनेको आज्ञा नही की। इस वचनपर ज्ञानीने स्वय ही विशेष भार दिया है । इसीलिये यदि वृत्तियाँ पदार्थोंमे क्षोभ प्राप्त करें तो उन्हें तुरत ही खीच लेकर उन वाह्यवृत्तियोका क्षय करें ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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