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________________ उपदेश नोध ६८७ . .. ... . ३३ - '" वैशाख, १९५० . नित्यनियम, ..... । ॐ श्रीमत्परमगुरुभ्यो नमः ।. सवेरे उठकर ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करके रात-दिनमे जो कुछ अठारह पापस्थानकमे प्रवृत्ति हई हो, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र, सबंधी तथा पचपरमपद सवधी जो कुछ अपराधु हुआ हो, किसी भी जीवके प्रति किचित् मात्र भी अपराव किया हो, वह जाने अनजाने, हुआ हो, उस सबको क्षमाना, उसकी निंदा करना, विशेष निंदा करना, आत्मामेसे उस अपराधका - विसर्जन करके नि शल्य. होना। रात्रिको सोते समय भी इसी तरह करता।.... ... ..... . . . ... ... . ... श्री सत्पुरुषके दर्शन करके चार,घडोके लिये सर्व सावध व्यापारसे निवृत्त होकर एक आसनपर स्थिति करना। उस समयमे 'परमगुरु' शब्दकी पांच मालाएं गिनकर दो घडी तक सत्शास्त्रका अध्ययन करना । उसके बाद एक घड़ी कायोत्सर्ग करके श्री सत्पुरुषोंके वचनोका, उस कायोत्सर्गमे जप-रटन करके सवृत्तिका अनुसधान करना। उसके बाद आधी घडीमे भक्तिको वृत्तिको उत्साहित करनेवाले पद (आज्ञानुसार) बोलना, । आधी घड़ीमे 'परमगुरु' शब्दका कायोत्सर्गके रूपमे जप, करना, और 'सर्वज्ञदेव' इस नामको पाँच मालाएं गिनना। अभी अध्ययन करने योग्य शास्त्र-वैराग्यशतक, इद्रियपराजयशतक, शातसुधारस, अध्यात्मकल्पद्रुम, योगदृष्टिसमुच्चय, नवतत्त्व,, मूलपद्धति,कर्मग्रथ, धर्मबिंदु, आत्मानुशासन, भावनाबोध, मोक्षमार्गप्रकाश, मोक्षमाला, उपमितिभवप्रपच, अध्यात्मसार, श्री आनदघनजी कृत चौबीसी मेसे ये स्तवन-१, ३, ५, ७, ८, ९, १०, १३, १५, १६, १७, १९, २२ । । । सात व्यसन-(जूआ, मास, मदिरा, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, परस्त्री) का त्याग। , (अथ सप्तव्यसन नाम चौपाई) । .. "जवा', मामिष, मदिरा, दारी, आहेटक', चोरी', परनारी । ' .. . एहि सप्तव्यसन ''दुःखदाई,' - दुरितमूळ दुर्गतिके जाई॥"... . ५,' दस सप्तव्यसनका त्याग । रात्रिभोजनका त्याग । अमुकको छोड़कर सभी, वनस्पतिका त्याग । अमुक तिथियोमे अत्यक्त वनस्पतिका' भी प्रतिबंध । अमुक रेसका त्याग । अब्रह्मचर्यका त्याग ! परिग्रह परिमाण । - शरीरमे विशेष रोग आदिके उपद्रवसे, बेभानपनसे, राजा अथवा देव आदिके बलात्कारसे यहाँ बताये हए नियमोमे प्रवृत्ति करनेके लिये अशक्त हुआ जाये तो उसके लिये पश्चात्तापका स्थानक समझना । स्वेच्छासे उस नियममे कुछ भी न्यूनाधिकता करनेकी प्रतिज्ञा । सत्पुरुषकी आज्ञासे उस नियममे फेरफार करनेसे नियम भग नही! ३४ . श्री खभात, आसोज सुदो, १९५१ सत्य वस्तके यथार्थ स्वरूपको जैसा जानना, अनुभव करना वैसा ही कहना यह सत्य है। यह दो प्रकारका है-'परमार्थसत्य' और 'व्यवहारसत्य'। .. 'परमार्थसत्य' अर्थात् आत्माके सिवाय दूसरा कोई पदार्थ आत्माका नही हो सकता, ऐसा निश्चय जानकर, भाषा बोलनेमे व्यवहारसे देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह आदि वस्तुओके प्रमगमे वोलनेसे १ यह जो नित्यनियम बताया हे वह 'धीमद् के उपदेशामृतमेसे लेकर श्री खभातके 0 मुमुक्षभाईने योजित किया है। २ खभातके एक मुमुक्षु भाईने यथाशक्ति स्मृतिमे रखकर की हुई नोप ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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