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________________ ६८६ श्रीमद राजचन्द्र दूसरेसे ऊँचा माना जानेके लिये मान उत्पन्न होता है, उसके लिये वह छल-कपट करता है, और उससे पैसा पंदा करता है, और वैसे करनेमें विघ्न करनेवाले पर क्रोध करता है । इस प्रकार कपायकी प्रकृतियाँ अनुक्रममे बँधती है; जिसमे लोभको इतनी बलवत्तर मिठास है, कि उसमे जीव मान भी भूल जाता है, और उसकी परवाह नहीं करता, इसलिये मानरूपी कपायको कम करनेसे अनुक्रमसे दूसरे कषाय अपने आप कम हो जाते है । ३१ आस्था तथा श्रद्धा प्रत्येक जीवको जीवके अस्तित्वसे लेकर मोक्ष तककी पूर्णरूपसे श्रद्धा रखनी चाहिये । इसमे जरा भी शक नही रखनी चाहिये । इस जगह अश्रद्धा रखना, यह जीवके पतित होनेका कारण है, और यह ऐसा स्थानक है कि वहाँसे गिरनेसे कोई स्थिति नही रहती । अंतर्मुहूर्त्तमे मत्तर कोटाकोटि सागरोपमकी स्थिति बँधती है, जिसके कारण जीवको असख्यात भवोमे भ्रमण करना पड़ता है । चारित्रमोहसे पतित हुआ जीव तो ठिकाने आ जाता है, परन्तु दर्शनमोहसे पतित हुआ जीव ठिकाने नही आता, क्योकि समझने में फेर होनेसे करनेमे फेर हो जाता है । वीतरागरूप ज्ञानीके वचनोमे अन्यथा भाव होना सम्भव ही नही है । उसका अजलवन लेकर ध्रुवतारेकी भाँति श्रद्धा इतनी दृढ करना कि कभी विचलित न हो । जव जव शका होनेका प्रसंग आये तव तव जीवको विचार करना चाहिये कि उसमे अपनी भूल ही होती है। वीतराग पुरुपोने जिस मतिसे ज्ञान कहा है, वह मति इस जीवमे है नही; और इस जीवको मति तो शाकमे नमक कम पडा हो तो उतनेमे ही रुक जाती है। तो फिर वीतरागके ज्ञानकी मतिका मुकाबला कहाँसे कर सके ? इसलिये वारहवे गुणस्थानके अन्त तक भी जीवको ज्ञानीका अवलवन लेना चाहिये, ऐसा कहा है । अधिकारी न होनेपर भी जो ऊँचे ज्ञानका उपदेश किया जाता है वह मात्र इसलिये कि जीवने अपनेको ज्ञानी तथा चतुर मान लिया है, उसका मान नष्ट हो और जो नीचेके स्थानकोसे वातें कही जाती है, वे मात्र इसलिये कि वैमा प्रसंग प्राप्त होनेपर जीव नोचेका नीचे ही रहे । बबई, आश्विन १९४९ ३२ जे सबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदसिणो । असुद्ध तेसि परक्कतं सफलं होइ सव्वसो ॥ २२ ॥ जे य बुद्धा महाभागा वोरा सम्मत्तदसिणो । सुद्धं तेसि परक्कतं अफलं होइ सन्वसो ॥२३॥ - श्री सूयगडाग सूत्र, वीर्याध्ययन टवाँ, गाथा २२-२३ ऊपरकी गाथाओमे जहाँ 'सफल' शब्द है वहाँ 'अफल' ठीक लगता है, और जहाँ 'अफल' शब्द है वहाँ 'मफल' शब्द ठीक लगता है, इसलिये उसमे लेखन-दोप है या वरावर है ? इसका समाधान - यहाँ लेखन-दोप नहीं हैं । जहाँ 'सफल' शब्द है वहाँ सफल ठीक है और जहाँ 'अफल' शब्द है वहां अफल ठीक है । मिथ्यादृष्टिकी क्रिया सफल है-फलमहित है, अर्थात् उसे पुण्य पापका फल भोगना है । सम्यग्दृष्टिकी क्रिया अफल है-फलरहित है, उसे फल नही भोगना है, अर्थात् निर्जरा है। एककी, मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको मसारहेतुक सफलता है, ओर दूसरेकी, मम्यग्दृष्टिकी क्रियाकी ससारहेतुक अफलता है, यो परमार्थ समझना योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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