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________________ ६८८ श्रीमद राजचन्द्र पहले एक आत्माके सिवाय दूसरा कोई मेरा नही है, यह उपयोग रहना चाहिये । अन्य आत्माके सम्बन्धमे बोलते समय आत्मामे जाति, लिंग और वैसे औपचारिक भेदवाला वह आत्मा न होनेपर भी मात्र व्यवहारनयसे कार्य के लिये सवोधित किया जाता है, इस प्रकार उपयोगपूर्वक बोला जाये तो वह पारमार्थिक सत्य भाषा है ऐसा समझें । १ दृष्टात - एक मनुष्य अपनी आरोपित देहकी, घरकी, स्त्रीकी, पुत्रकी या अन्य पदार्थको बात करता हो, उस समय स्पष्टरूपसे उन सब पदार्थोंसे वक्ता में भिन्न हूँ, और वे मेरे नहीं है' इस प्रकार स्पष्टरूपसे बोलनेवालेको भान हो तो वह सत्य कहा जाता है । २ दृष्टात - जिस प्रकार कोई ग्रन्थकार श्रेणिक राजा और चेलना रानीका वर्णन करता हो, तो वे दोनो आत्मा थे और मात्र श्रेणिकके भवकी अपेक्षासे उनका सम्बन्ध, "अथवा स्त्री, पुत्र, धन, राज्य, आदिका सम्बन्ध था, यह बात ध्यानमे रखनेके बाद बोलनेकी प्रवृत्ति करे, यही परमार्थ सत्य है । व्यवहार सत्यके आये बिना परमार्थसत्य वचनका बोलना नही हो सकता । इसलिये व्यवहारसत्य नीचे अनुसार जानें जिस प्रकारसे वस्तुका स्वरूप देखनेसे, अनुभव करनेसे, श्रवणसे अथवा पढ़ने से हमे अनुभवमे आया हो उसी प्रकारसे यथातथ्यरूपसे वस्तुका स्वरूप कहना ओर उस प्रसगपर वचन बोलना उसका नाम व्यवहारसत्य है । दृष्टात - जैसे कि अमुक मनुष्यका लाल घोडा जगलमे दिनके बारह बजे देखा हो, और किसीके पूछने से उसी प्रकार से यथातथ्य वचन बोलना यह व्यवहारसत्य है । इसमे भी किसी प्राणीके प्राणका नाश होता हो, अथवा उन्मत्ततासे वचन बोला गया हो, वह यद्यपि सच्चा हो तो भी असत्य तुल्य ही है, ऐसा जानकर प्रवृत्ति करें । सत्य से विपरीत उसे असत्य कहा जाता है । क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, दुगंछा, अज्ञान आदिसे बोला जाता है । आदि मोहनी अगभूत हैं । उसकी स्थिति दूसरे सभी कर्मोसे अधिक अर्थात् (७०) सत्तर कोडाकोडी सागरोपमकी है । इस कर्मका क्षय हुए बिना ज्ञानावरण आदि कर्मोका सम्पूर्णतासे क्षय नही हो सकता । यद्यपि गणितमे प्रथम ज्ञानावरण आदि कर्म कहे है, परन्तु इस कर्मको बहुत महत्ता है, क्योकि ससारके मूलभूत रागद्वेषका यह मूलस्थान है, इसलिये भवभ्रमण करनेमे इस कर्मकी मुख्यता है, ऐसी मोहनीयकर्मकी बलवत्ता है, फिर भी उसका क्षय करना सरल है । अर्थात् जैसे वेदनीयकर्म भोगे बिना निष्फल नही होता परन्तु इस कर्मके लिये वैसा नही हे । मोहनीय कर्मकी प्रकृतिरूप क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कपाय तथा नोकपायका अनुक्रमसे क्षमा, नम्रता, निरभिमानता, सरलता, निर्दभता और सतोष आदिको विपक्षभावनासे अर्थात् मात्र विचार करनेसे उपर्युक्त कषाय निष्फल किये जा सकते है, नोकषाय भी विचारसे क्षीण किये जा सकते है, अर्थात् उसके लिये बाह्य कुछ नही करना पड़ता । 'मुनि' यह नाम भी इस पूर्वोक्त रीतिसे विचार कर वचन बोलने से सत्य हे । बहुत करके प्रयोजनके विना वोलना ही नही, उसका नाम मुनित्व है। रागद्वेप और अज्ञानके बिना यथास्थित वस्तुका स्वरूप कहते बोलते हुए भी मुनित्व - मौन समझें । पूर्व तीर्थंकर आदि महात्माओने ऐसा ही विचार कर मौन धारण किया था, और लगभग साढे बारह वर्ष मौन धारण करनेवाले भगवान वीर प्रभुने ऐसे उत्कृष्ट विचारसे आत्मामेसे फिरा-फिराकर मोहनीयकर्म के सम्बन्धको बाहर निकाल करके केवलज्ञानदर्शन प्रगट किया था। आत्मा चाहे तो सत्य बोलना कुछ कठिन नही है । व्यवहारसत्यभापा वहुत बार बोली जाती है, परन्तु परमार्थसत्य बोलने में नही आया, इसीलिये इस जीवका भवभ्रमण नही मिटता । सम्यक्त्व होने के
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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