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________________ } उपदेश नोंध ६८५ होनेसे आत्माको असयमता दूर होकर संयमता होती है, और उससे मन पर्यायज्ञान प्रगट होता हैं। उसके योगसे आत्मा दूसरेका अभिप्राय जान सकता है लिंग-चिह्न देखने से दूसरेके क्रोध, हर्ष' आदि भाव जाने जा सकते हैं, यह मतिज्ञानका विषय है । वैसे चिह्न न देखनेसें जो भाव जाने जा सकते है वह मन पर्यायज्ञानका विषय है। 1 २८ 16 पाँच इन्द्रियोके विषय संबन्ध जिस जीवको मोहनीय कर्मरूपी कषायका त्याग करना हो, और 'जब वह उसका एकदम त्याग करना चाहेगा तब कर सकेगा' ऐसे विश्वासपर रहकर, जो क्रमश त्याग करनेका अभ्यास नही करता, वह एकदम त्याग करनेका प्रसग आनेपर मोहनीय कर्मके बलके आगे टिक नही सकता, क्योकि कर्मरूप शत्रु धीरे-धीरे निर्बल किये बिना निकाल देनेमे वह एकदम असमर्थ हो जाता है । आत्माकी निर्बलताके कारण उसपर मोहका प्राबल्य रहता है। उसका जोर कम करनेके लिये यदि आत्मा प्रयत्न करे तो एक ही बारमे उसपर जय पानेकी धारणमे वह ठगा जाता है। जब तक मोहवृत्ति लंडने के लिये सामने नहीं आती तभी तक मोहवश 'आत्मा अपनी बलवत्ता समझता है, परन्तु इमं प्रकारकी कसोटीका 'प्रसंग 'आनेपर आत्माको अपनी कायरता समझमे आती है । इसलिये जैसे बने वैसे पाँच इन्द्रियोंके विषयोको 'शिथिल करना, उसमें भी मुख्यत उपस्थ इन्द्रियको वशमे लाना, इस तरह अनुक्रमसे दूसरी इन्द्रियो के विषयोपर काबू पाना । } इंद्रिय विषयरूपी क्षेत्रकी दो तसू जमीन' जीतने के लिये आत्मा असमर्थता बताता है और सारी "पृथ्वीको जीतनेमे समर्थता मानता है, यह कैसा आश्चर्यरूप है ? ~151", प्रवृत्तिके कारण आत्मा निवृत्तिका विचार नही कर सकता, यो कहना मात्र एक बहाना है | यदि थोडे समय के लिये भी आत्मा प्रवृत्ति छोडकर प्रमादरहित होकर सदा निवृत्तिका विचार करे, तो उसका बल प्रवृत्तिमे भी अपना कार्य कर सकता है । क्योकि प्रत्येक वस्तुका अपनी न्यूनाधिक बलवत्ता के अनुसार हो अपना कार्य करनेका स्वभाव है । 'जिस तरह मादक वस्तु दूसरी खुराक के साथ अपने असली स्वभावके अनुसार परिणमन करनेको नही भूल जाती उसी तरह ज्ञान भी अपने स्वभावको नही भूलता । इसलिये प्रत्येक जीवको प्रमादरहित होकर योग, काल, निवृत्ति और मार्गका विचार निरतर करना चाहिये । २९ व्रत सबधी - 1 यदि प्रत्येक जोवको व्रत लेना हो तो स्पष्टताके साथ दूसरेकी साक्षीसे लेना चाहिये । उसमें स्वेच्छासे वर्तन नही करना चाहिये । व्रतमे रह सकनेवाला आगार रखा हो और कारण विशेषको लेकर वस्तुका उपयोग करना पड़े तो वैसा करनेमे स्वय अधिकारी नहीं बनना चाहिये। ज्ञानीकी आज्ञाके अनुसार वर्तन करना चाहिये । नही तो उसमे शिथिल हुआ जाता है, और व्रतका भंग हो जाता है । ३० मोह - कषाय सवधी : प्रत्येक जीवकी अपेक्षा से ज्ञानीने क्रोध, मान, माया और लोभ, यो अनुक्रम रखा है, वह क्षय होनेकी अपेक्षा है । पहले कपायके क्षयसे अनुक्रमसे दूसरे कपायोका क्षय होता है, और अमुक अमुक जीवोकी अपेक्षा से मान, माया, , लोभ और क्रोध, ऐसा क्रम रखा है, वह देश, काल और क्षेत्र देखकर। पहले जीवकां
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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