SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 817
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८४ श्रीमद् राजचन्द्र 'मोक्षमाला' के "प्रज्ञावबोध' भागके १०८ मनके यहाँ लिखायेंगे। परम सत्श्रुतके प्रचाररूप एक योजना सोची है। उसका प्रचार होकर परमार्थमाग प्रकाशित होगा। बबई, माटुंगा, मार्गशीर्ष, १९५७ श्री 'शातसुधारस' का भी पुनः विवेचनरूप भाषातर करने योग्य है, सो कीजियेगा। २६ बबई, शिव, मार्गशीर्ष, १९५७ 'देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यंते नातस्त्वमसि नो महान् ॥' - स्तुतिकार श्री समतभद्रसूरिको वीतरागदेव मानो कहते हो-'हे समतभद्र | यह हमारी अष्टप्रातिहार्य आदि विभूति तू देख, हमारा महत्त्व देख ।' तब सिंह गुफामेसे गम्भीर चालसे बाहर निकलकर जिस तरह गर्जना करता है उसी तरह श्री समतभद्रसूरि गर्जना करते हुए कहते है-'देवताओका आना, आकाशमे विचरना, चामरादि विभूतियोका भोग करना, चामर आदिके वैभवसे पूजनीय दिखाना यह तो मायावी इन्द्रजालिक भी बता सकता है। तेरे पास देवोका आना होता है, अथवा तू आकाशमे विचरता है, अथवा तू चामर छत्र आदि विभूतिका उपभोग करता है इसलिये तू हमारे मनको महान है | नही, नही, इसलिये तू हमारे मनको महान नही, उतनेसे तेरा महत्त्व नहीं। ऐसा महत्त्व तो मायावी इन्द्रजालिक भी दिखा सकता है।' तब फिर सद्देवका वास्तविक महत्त्व क्या है ? तो कहते है कि वीतरागता । इस तरह आगे बताते है। ___ ये श्री समतभद्रसूरि विक्रमकी दूसरी शताब्दीमे हुए थे। वे श्वेताबर-दिगबर दोनोमे एक सरीखे सन्मानित है । उन्होने देवागमस्तोत्र (उपयुक्त स्तुति इस स्तोत्रका प्रथम पद है) अथवा आप्तमीमासा रची है । तत्त्वार्थसूत्रके मगलाचरणकी टीका करते हुए यह देवागमस्तोत्र लिखा गया है और उसपर अष्टसहस्री टीका तथा चौरासी हजार श्लोकप्रमाण 'गधहस्ती महाभाष्य' टीका रची गयी हैं। मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ .. यह इसका प्रथम मगल स्तोत्र है। मोक्षमार्गके नेता, कर्मरूपी पर्वतके भेत्ता-भेदन करनेवाले, विश्व अर्थात् समग्र तत्त्वके ज्ञाता, जाननेवाले-उन्हे गुणोकी प्राप्तिके लिये मै वदन करता हूँ। 'आप्तमीमासा', 'योगबिन्दु' और 'उपमितिभवप्रपचकथा' का गजराती भाषातर कीजियेगा । 'योगविन्दु' का भाषातर हुआ है, 'उपमितिभवप्रपंच' का हो रहा है, परन्तु वे दोनो फिरसे करने योग्य है, उसे कीजियेगा, धीरे धीरे होगा। लोककल्याण हितरूप है और वह कर्तव्य है। अपनी योग्यताको न्यूनतासे और जोखिमदारी न समझी जा सकनेसे अपकार न हो, यह भी ख्याल रखनेका है। २२७ ___ मन पर्यायज्ञान किस तरह प्रगट होता है ? साधारणत. प्रत्येक जोवको मतिज्ञान होता है । उसके आश्रित श्रुतज्ञानमे वृद्धि होनेसे वह मतिज्ञानका बल बढाता है, इस तरह अनुक्रमसे मतिज्ञान निमल १ देखें आक ९४६ । २ आक २७ से आक ३१ तक खभातके श्री त्रिभुवनभाईकी नोधमेसे लिये हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy