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________________ २२ २३ उपदेश नोंध ६८३ __ मोरबी, आषाढ सुदी, १९५६ 'प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्न वदनकमलमंकः कामिनीसगशून्यः। ___ करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबंधवंध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ॥' 'तेरे दो चक्षु प्रशमरसमे डूबे हुए है, परमशात रसका अनुभव कर रहे है । तेरा मुखकमल प्रसन्न है; उसमे प्रसन्नता व्याप्त हो रही है। तेरी गोद स्त्रीके सगसे रहित है। तेरे दो हाथ शस्त्रसबधरहित हैं-तेरे हाथोमे शस्त्र नही हैं । इस तरह तू ही जगतमे वीतरागदेव है।' देव कौन ? वीतराग । दर्शनयोग्य मुद्रा कौनसो ? जो वीतरागता सूचित करे वह । 'स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा' वैराग्यका उत्तम ग्रन्थ है। द्रव्यको, वस्तुको यथावत् दृष्टिमे रखकर इसमे वैराग्यका निरूपण किया है। द्रव्यका स्वरूप बतलानेवाले चार श्लोक अद्भुत है। इसके लिये इस ग्रथकी राह देखते थे। गत वर्ष ज्येष्ठ मासमे मद्रासकी ओर जाना हुआ था। कार्तिकस्वामी इस भूमिमे बहुत विचरे हैं । इस तरफके नग्न, भव्य, ऊँचे, अडोल वृत्तिसे खडे पहाड देखकर स्वामी कार्तिकेय आदिकी अडोल, वैराग्यमय दिगबरवृत्ति याद आती थी। नमस्कार उन स्वामी कार्तिकेय आदिको। - मोरबी, श्रावण वदी ८, १९५६ 'षड्दर्शनसमुच्चय' और 'योगदृष्टिसमुच्चय' का भाषांतर गुजरातीमे करने योग्य है । 'षड्दर्शनसमुच्चय' का भाषातर हुआ है परन्तु उसे सुधारकर फिरसे करना योग्य है। धीरे धीरे होगा, करे। आनंदघनजीकी चौबीसीका अर्थ भी विवेचनके साथ लिखे । नमो दुर्वाररागादिवैरिवार निवारिणे । अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥ श्री हेमचन्द्राचार्य 'योगशास्त्र' की रचना करते हुए मगलाचरणमे वीतराग सर्वज्ञ अरिहत योगीनाथ महावीरको स्तुतिरूपसे नमस्कार करते है। 'जो रोके रुक नही सकते, जिनको रोकना बहुत बहुत मुश्किल है, ऐसे राग, द्वेष, अज्ञानरूपी शत्रुके समूहको जिन्होने रोका, जीता, जो वीतराग सर्वज्ञ हुए, वीतराग सर्वज्ञ होनेसे जो अर्हन्त पूजनीय हुए, और वीतराग अर्हन्त होनेसे, जिनका मोक्षके लिये प्रवर्तन है ऐसे भिन्न भिन्न योगियोंके जो नाथ हुए, नेता हुए, और इस तरह नाथ होनेसे जो जगतके नाथ, तात, और त्राता हुए, ऐसे जो महावीर हैं उन्ह नमस्कार हो । यहाँ सद्देवके अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, वचनातिशय और पूजातिशय सूचित किया है। इस मगल स्ततिमे समग्र 'योगशास्त्र' का सार समा दिया है। सद्देवका निरूपण किया है। समग्र पस्तुस्वरूप, तत्त्वज्ञानका समावेश कर दिया है। खोलनेवाला खोजी चाहिये। ... लौकिक-मेलेमे वृत्तिको चचल करनेवाले प्रसग विशेष होते हैं। सच्चा मेला सत्सगका है। ऐसे नवृत्तिकी चचलता कम होती है, दूर होती है। इसलिये ज्ञानियोने सत्सग-मेलेका बखान किया है. वढवाणकेम्प, भाद्रपद वदी, १९५६ ___'मोक्षमाला' के पाठ हमने माप माप कर लिखे हैं। पुनरावृत्तिके बारेमे आप यथासुख प्रवत्ति कर। कतिपय वाक्योके नीचे लकीर खीची है, वैसा करनेकी जरूरत नहीं है । श्रोता-वाचकको यथासंभव अपने अभिप्रायसे प्रेरित न करनेका लक्ष्य रखें। श्रोता-वाचकमे स्वत अभिप्राय उत्पन्न होने दें। सारासारके तोलनका कार्य स्वय वाचक-श्रोतापर छोड दें। हम उन्हें प्रेरित कर, उनमे स्वय उत्पन्न हो सकनेवाले अभिप्रायको रोक न दें। उपदेश किया है। २४
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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