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________________ १ उपदेश नोध ६८१ ज्ञानीका मार्ग सुलभ है परन्तु उसे प्राप्त करना दुष्कर है, यह मार्ग विकट नही है, 'सोधा है, परन्तु उसे पाना विकट है। प्रथम सच्चा ज्ञानी चाहिये । उसे पहचानना चाहिये । उसकी प्रतीति आनी चाहिये। बादमे उसके वचनपर श्रद्धा रखकर नि शकतासे चलतेसे मार्ग सुलभ है, परतु ज्ञानीका मिलना और पहचानना. विकट है, दुष्कर है। . . : - 'TPS:/--..., : घनी झाडीमे भूले पडे हुए मनुष्यको वनोपकठमे जानेका मार्गः कोई दिखाये, कि, 'जा, नीचे-नीचे चला जा । रास्ता सुलभ है, यह रास्ता सुलभ है । परन्तु उस भूले पडे हुए, मनुष्यके लिये जानाविकट है; इस मार्गमे जानेसे पहुँचंगा या नहीं, यह, शका, आडे आती है। शका किये बिना ज्ञानियोके मार्गका आराधन करे तो उसे पाना सुलभ है. .... . . . . . . . . . . . , १५ . . - बंबई, कात्तिक वदी ११, १९५६ 1 श्री सत्श्रुत , . . , , E-517 12, १... श्री पाडव पुराणमे प्रद्युम्न चरित्र - ११. श्री क्षपणासार. TETS , २ श्री पुरुषार्थसिद्धि उपाय . . . .१२ - श्री लब्धिसार ..... । ३ श्री पद्मनदिपंचविशति १३ श्री त्रिलोकसार ... ... . ४. श्री गोम्मटसार' .१४. श्री तत्त्वसार ।. . ५ श्री रत्नकरंड श्रावकाचार १५ श्री प्रवचनसार ६ श्री आत्मानुशासन । । १६ श्री समयसार ज . ७ श्री मोक्षमार्गप्रकाश । १७ , श्री पचास्तिकाय, , , . "श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा - १८. श्री अष्टप्राभत ।' - ' : ९ श्री योगदृष्टि समुच्चय । । . १९ ' श्री परमात्मप्रकाश .. .. - १०. श्री क्रियाकोष - २० श्री रयणसार " आदि अनेक है। इद्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक इस सत्श्रुतका सेवन करना योग्य है। यह फल अलौकिक है, अमृत है। १६ । 'बवई, कात्तिक वदी ११, १९५६ ज्ञानीको पहचाने, पहचान कर उनकी आज्ञाका आराधन करें। ज्ञानीकी एक आज्ञाका आराधन करनेसे अनेकविध कल्याण है। ... ज्ञानी जगतको तृणवत् समझते है, यह उनके ज्ञानकी महिमा समझे । . . . कोई मिथ्याभिनिवेशी ज्ञानका ढोग करके जगतका भार व्यर्थ सिरपर वहन करता हो तो वह हास्यपात्र है। ' बबई, कात्तिक वदी ११, १९५६ वस्तुत दो वस्तुएँ है-जीव और अजीव । लोगोने सुवर्ण नाम कल्पित रखा। उसकी भस्म होकर पेटमे गया। विष्टामे परिणत होकर खाद हुआ, क्षेत्रमे उगा, धान्य हुआ, लोगोने खाया, कालातरसे लोहा हुआ । वस्तुत एक द्रव्यके भिन्न भिन्न पर्यायोको कल्पनारूपसे भिन्न भिन्न नाम दिये गये। एक द्रव्यक भिन्न भिन्न पर्यायो द्वारा लोग भ्रातिमे पड गये । इस भ्रातिने ममताको जन्म दिया । ... , । रुपये वस्तुत हैं, फिर भी लेनेवाले और देनेवालेका मिथ्या झगडा होता है। लेनेवालेको अघोरतासे उसका मन रुपये गये ऐसा समझता है । वस्तुत- रुपये हैं। इसी तरह भिन्न भिन्न कल्पनाओने भ्रमजाल
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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