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________________ श्रीमद् राजचन्द्र 'मोक्षमाला' के "प्रज्ञावबोध' भागके १०८ मनके यहाँ लिखायेंगे । परम सत्श्रुतके प्रचाररूप एक योजना सोची है । उसका प्रकाशित होगा । ६८४ प्रचार होकर परमार्थमाग बबई, माटुंगा, मार्गशीर्ष, १९५७ २५ S श्री 'शातसुधारस' का भी पुनः विवेचनरूप भाषातर करने योग्य है, सो कीजियेगा । २६ 'देवागमनभोयानचामराविविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ॥' स्तुतिकार श्री समतभद्रसूरिको वीतरागदेव मानो कहते हो - 'हे समतभद्र । यह हमारी अष्टप्रातिहार्य आदि विभूति तू देख, हमारा महत्त्व देख ।' तब सिंह गुफामेसे गम्भीर चालसे बाहर निकलकर जिस तरह गर्जना करता है उसी तरह श्री समतभद्रसूरि गर्जना करते हुए कहते है-'देवताओका आना, आकाशमे विचरना, चामरादि विभूतियो का भोग करना, चामर आदिके वैभवसे पूजनीय दिखाना यह तो मायावी इन्द्रजालिक भी बता सकता है। तेरे पास देवोका आना होता है, अथवा तू आकाशमे विचरता है, अथवा तू चामर छत्र आदि विभूतिका उपभोग करता है इसलिये तू हमारे मनको महान है । नहीं, नही, इसलिये तू हमारे मनको महान नही, उतनेसे तेरा महत्त्व नही। ऐसा महत्त्व तो मायावी इन्द्रजालिक भी 'दिखा सकता है ।' तव फिर सदेवका वास्तविक महत्त्व क्या है ? तो कहते है कि वीतरागता । इस तरह आगे बताते है । T I ये श्री समतभद्रसूरि विक्रमकी दूसरी शताब्दी मे हुए थे । वे श्वेतावर -दिगवर दोनोमे एक सरीखे सन्मानित हैं । उन्होने देवागमस्तोत्र ( उपर्युक्त स्तुति इस स्तोत्रका प्रथम पद है) अथवा आप्तमीमासा रची है | तत्त्वार्थसूत्रके मगलाचरणकी टीका करते हुए यह देवागमस्तोत्र लिखा गया है और उसपर अष्टसहस्री टीका तथा चौरानी हजार श्लोकप्रमाण 'गंधहस्ती महाभाष्य' टीका रची गयी हैं । ववई, शिव, मार्गशीर्ष, १९५७ मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ यह इसका प्रथम मंगल स्तोत्र है । मोक्षमार्गके नेता, कर्मरूपी पर्वतके भेत्ता-भेदन करनेवाले, विश्व अर्थात् समग्र तत्त्वके ज्ञाता, जाननेवाले - - उन्हें गुणोकी प्राप्तिके लिये मे वदन करता हूँ । 'आप्तमीमासा', 'योगबिन्दु' और 'उपमितिभवप्रपचकथा' का गुजराती भाषातर कीजियेगा । 'योगविन्दु' का भापातर हुआ है, 'उपमितिभवप्रपच' का हो रहा है, परन्तु वे दोनो फिरसे करने योग्य है, उसे कीजियेगा, धीरे-धीरे होगा । लोककल्याण हितरूप है और वह कर्तव्य है । अपनी योग्यताको न्यूनतासे और जोखिमंदारी न समझी जा सकनेसे अपकार न हो, यह भी ख्याल रखनेका है। २२७ मन पर्यायज्ञान किस तरह प्रगट होता है ? साधारणत. प्रत्येक जीवको मतिज्ञान होता है । उसके आश्रित श्रुतज्ञानमे वृद्धि होनेसे वह मतिज्ञानका बल बढाता है, इस तरह अनुक्रमसे मतिज्ञान निर्मल १ देखें आक ९४६ २. आक २७ से आक ३१ तक सभातके श्री त्रिभुवनभाईकी नोघमेसे लिये हैं ।,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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