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________________ ६८० श्रीमद् राजचन्द्र । 'जिन-प्रतिमाके चरण धीरे धीरे दबाए।' .' कायोत्सर्ग-मुद्रावाली एक छोटी पंचधातुकी जिनप्रतिमा अन्दरसे कोरकर निकाली थी । वह सिद्धकी अवस्थामे होनेवाले घनको सूचक थीं । उस' अवगाहनाको बताकर कहा कि जिस देहसे आत्मा संपूर्ण सिद्ध होता है उस देहप्रमाणसे किंचित् न्यून जो क्षेत्रप्रमाण धन हो वह अवगाहना है । जीव अलग अलग सिद्ध हुए। वे एक क्षेत्रमे स्थित होनेपर भी प्रत्येक पृथक् पृथक् है । निज क्षेत्र धनप्रमाण अवगाहनासे हैं।' प्रत्येक सिद्धात्माकी ज्ञायक सत्ता लोकालोकप्रमाण, लोकके ज्ञाता होनेपर भी लोकसे भिन्न है। 1 भिन्न भिन्न प्रत्येक दीपकका प्रकाश एक हो जानेपर भी दीपक जैसे भिन्न भिन्न हैं, इस न्यायसे प्रत्येक सिद्धात्मा भिन्न भिन्न है। - ये मुक्तागिरि आदि तीर्थोके चित्र हैं। ।। . यह गोमटेश्वर नामसे प्रसिद्ध श्री' बाहुबलस्वामीकी प्रतिमाका चित्र है। बेंगलोरके पास एकात जंगलमे पर्वतमेसे कोरकर निकाली हुई सत्तर फुट ऊँची यह भव्य प्रतिमा है। आठवी सदीमे श्री चामुंडरायने इसकी प्रतिष्ठा की है। अडोल ध्यानमे कायोत्सर्ग मुद्रामे श्री बाहुबलजी अनिमेष नेत्रसे खडे है । हाथ-पैरमे वृक्षकी लतायें लिपटी होनेपर भी देहभानरहित ध्यानस्थ श्री बाहुबलजीको उसका पता नही है । कैवल्य प्रगट होने योग्य दशा होनेपर भी जरा मानका अकुर बाधक हुआ है । "वीरा मारा गज थकी ऊतरो" इस मानरूपी गजसे उतरनेके अपनी बहनें ब्राह्मी और सुन्दरीके शब्द कृर्णगोचर होनेसे सुविचारमे सज्ज होकर, मान दूर करनेके लिये तैयार होने पर कैवल्य प्रगट हुआ। वह इन श्री बाहुबलजीको ध्यानस्थ मुद्रा है। । । .. - ( दर्शन करके श्री मदिरकी ज्ञानशालामे) । श्री गोम्मटसार' लेकर उसका स्वाध्याय किया। श्री 'पाडवपुराण' मेंसे प्रद्युम्न अधिकारका वर्णन किया । प्रद्यम्नका वैराग्य गाया। ", वसुदेवने पूर्वभवमे सुरूपसंपन्न होनेके निदानपूर्वक उग्न तपश्चर्या की। भावनारूप तपश्चर्या फलित हुई । सुरूपसपन्न देह प्राप्त की। वह सुरूप अनेक विक्षेपोका कारण हुआ। स्त्रियाँ व्यामुग्ध होकर पीछे घूमने लगी। निदानका दोष वसुदेवको प्रत्यक्ष हुआ। विक्षेपसे छूटनेके लिये भाग जाना पड़ा। 'मुझे इस तपश्चर्यासे ऋद्धि मिले या वैभव मिले या अमुक इच्छित होवे, ऐसी इच्छाको निदान दोष कहते है । वैसा निदान बाँधना योग्य नही है ।.. .. १.! . . . . . . । १३ - - - बबई, कात्तिक वदी ९, १९५६ TF- 'अवगाहना अर्थात् अवगाहना । अवगाहना अर्थात् कद-आकार ऐसा नही। कितने ही तत्त्वके पारिभाषिक शब्द ऐसे होते है कि जिनका अर्थ दूसरे-शब्दोसे व्यक्त नही किया जा सकता, जिनके अनुरूप दूसरे शब्द नही मिलते, जो समझे जा सकते हैं, परन्तु व्यक्त नही किये जा सकते । ___ अवगाहना ऐसा शब्द है । बहुत बोधसे, विशेष विचारसे यह समझा जा सकता है । अवगाहना क्षेत्राश्रयी है । भिन्न होते हुए भी परस्पर मिल जाना, फिर भी अलग रहना। इस तरह सिद्ध आत्माकी जितने क्षेत्रप्रमाण व्यापकता वह उसको अवगाहना कही है। ' 73 बबई कार्तिक वदी १. १९५६ ' ' जो बहुत भोगा जाता है वह बहुत क्षीण होता है । समतासे कर्म भोगनेसे उनकी निर्जरा होती है , ___ वे क्षीण होते हैं। शारीरिक विषय भोगनेसे शारीरिक शक्ति क्षीण होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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