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________________ उपदेश नोध... ६७९ गत रात्रिमे श्री आनन्दघनजीके, सद्देवतत्त्वका निरूपण करनेवाले श्री मल्लिनाथके स्तवनको चर्चा हो रही थी, उस समय बीचमे आपने प्रश्न किया था इस बारेमे हम सकारण मौन रहे थें । आपका प्रश्न संगत और अनुसंधिवाला था । परन्तु वह सभी श्रोताओको ग्राह्य हो सके ऐसा न था, और किसी के. समझमे न आनेसे विकल्प उत्पन्न करनेवाला था। चलते हुए विषयमे श्रोताओका श्रवणसूत्र टूट जाये, ऐसा था । और आपको स्वयमेव स्पष्टता हो गयी है । अब पूछना है ? - +} 2,3 । लोग एक कार्यकी तथा उसके कर्ताको प्रशसा करते है यह ठीक है यह उस कार्यका पोषक तथा उसके कर्त्ताके उत्साहको बढानेवाला है । परन्तु साथ ही उस कार्यमे जो कमी हो उसे भी, विवेक और निरभिमानतासे सभ्यतापूर्वक बताना चाहिये, कि जिससे फिर त्रुटिका अवकाश न रहे और वह कार्य, त्रुटिरहित होकर पूर्ण हो जाये । अकेली प्रशसा गुणगान से सिद्धि नही होती। इससे तो उलटा मिथ्याभिमान बढता है। आजके मानपत्र आदिमे यह प्रथा विशेष है। विवेक चाहिये ! 1 5 म०—साहब | चन्द्रसूरि आपको याद करके पूछा करते थे । आप, यहाँ हैं, यह उन्हे मालूम नही था । आपसे मिलनेके लिये आये है । 1 RE 201 श्रीमंद - परिग्रहधारी यतियोका सन्मान करने से मिथ्यात्वको पोषण मिलता है, मार्गका विरोध होता है । दाक्षिण्य सभ्यताको भी निभाना चाहिये । चन्द्रसूरि हमारे लिये आये है । परन्तु जीवको छोडना अच्छा नही लगता, मिथ्या चतुराईकी बातें करती है, मान छोड़ना रुचता नही । उससे आत्मार्थ सिद्ध नही होता ! हमारे लिये आये, इसलिये सभ्यता, धर्म को निभानेके लिये हम उनके पास गये । प्रतिपक्षी स्थानक - सम्प्रदायवाले कहेंगे कि इन्हे इनपर राग है, इसलिये वहाँ गये, हमारे पास नही आते । परन्तु जीव हेतु एव कारणका विचार नही करता । मिथ्या दूषण, खाली आरोप लगानेके लिये तैयार है । ऐसे वर्तनके जानेपर छुटकारा है । भवपरिपाकसे सद्विचार स्फुरित होता है और हेतु एव परमार्थका विचार उदित होता है । बडे जसे कहे वैसे करना, जैसे करें वैसे नही करना चाहिये । - श्री कबीरका अन्तर, समझे, बिना भोलेपनसे- लोग, उन्हे परेशान करने लगे । - इस विक्षेपको दूर करनेके लिये कबीरजी वेश्याके यहाँ जाकर बैठ गये । लोकसमूह वापिस लौटा -1 कबीरजी भ्रष्ट हो गये ऐसा लोग कहने लगे। सच्चे भक्त थोडे थे कवीरको चिपके रहे । कबीरजीका विक्षेप तो दूर हुआ, परन्तु दूसरोको उनका अनुकरण नही करना चाहिये । - } नरसिंह मेहता गा गये है-, 31 *मारुगायुगाशे ते झझा गोदा खाशे । समझीने गाशे ते वहेलो वैकुण्ठ जाशे ॥ तात्पर्य यह कि समझकर विवेकपूर्वक करना है । अपनी दशाके बिना, जीव अनुकरण करने लगे तो मार खाकर ही रहेगा । इसलिये बड़े कहे वैसे चाहिये। यह वचन सापेक्ष हे । * ,{ विवेकके बिना, समझे बिना करना, करे वैसा नही करना १२ -- (दूसरे भोईवाडे श्री शातिनाथजीके दिगवरी-मदिरमे दर्शन-प्रसगका वर्णन ) प्रतिमाको देखकर दूरसे वन्दन किया । बम्बई, कार्तिक वदी ९, १९५६ तीन बार पचाग प्रणाम किया । श्री आनदघनजीका श्री पद्मप्रभुका स्तवन सुमधुर, गभीर और सुस्पष्ट ध्वनिसे गाया । * भावार्थ - विना समझे मेरा कहा करंगा वह मार ही खायेगा । नमझकर जो मेरा अनुकरण करेगा वह जल्दी वैकुण्ठमे जायेगा ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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