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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ९४ कुशल और आज्ञाकारी पुत्र, आज्ञावलंबी धर्मयुक्त अनुचर, सद्गुणी सुन्दरी, मेलजोलवाला कुटुम्ब, सत्पुरुष जैसी अपनी दशा जिस पुरुषको होगी उसका आजका दिन हम सबके लिए वन्दनीय है। ९५ इन सब लक्षणोसे सयुक्त होनेके लिये जो पुरुष विचक्षणतासे प्रयत्न करता है, उसका दिन हमारे लिये माननीय है। ९६ इससे विपरीत बर्ताव जहाँ हो रहा है वह घर हमारी कटाक्षदृष्टिकी रेखा है। ९७ भले ही तू अपनी आजीविका जितना प्राप्त करता हो, परन्तु यदि निरुपाधिमय हो तो उस उपाधिमय राजसुखकी इच्छा करके अपने आजके दिनको अपवित्र मत कर। ९८ किसीने तुझे कटुवचन कहा हो तो उस समय सहनशीलता-निरुपयोगी भी, ९९. दिनकी भूलके लिये रातमे हँसना, परतु वैसा हँसना फिरसे न हो, यह ध्यानमे रख । १०० आज कुछ बुद्धिप्रभाव बढाया हो, आत्मिक शक्ति उज्ज्वल की हो, पवित्र कृत्यकी वृद्धि की हो तो वह, १०१ आज अपनी किसी शक्तिका अयोग्य रीतिसे उपयोग मत कर,-मर्यादालोपनसे करना पड़े तो पापभीरु रह। __ १०२ सरलता धर्मका बीजस्वरूप है। प्रज्ञापूर्वक सरलताका सेवन किया गया हो तो आजका दिन सर्वोत्तम है। १०३ स्त्री, राजपत्नी हो या दोनजनपत्नी हो, परन्तु मुझे उसकी कोई परवा नहीं है। मर्यादासे चलनेवालीकी, मैने तो क्या परतु पवित्र ज्ञानियोने भी प्रशसा की है। १०४ सद्गुणके कारण यदि आप पर जगतका प्रशस्त मोह होगा तो हे स्त्री | मै आपको वंदन करता हूँ। १०५ बहुमान, नम्रभाव और विशुद्ध अन्त करणसे परमात्माका गुणसबधी चिन्तन, श्रवण, मनन, कीर्तन, पूजा, अर्चा-इनकी ज्ञानी पुरुषोने प्रशसा की है, इसलिये आजके दिनको सुशोभित कर । १०६ सत्-गोलवान् सुखी है, दुराचारी दुखी है, यह बात यदि मान्य न हो तो अभीसे आप ध्यान रखकर इस बातका विचार कर देखे । १०७ इन सबका सरल उपाय आज कहे देता हूँ कि दोपको पहचानकर दोषको दूर करना। १०८ लबी छोटो या क्रमानुक्रम चाहे जिस स्वरूपमे यह मेरी कही हुई, पवित्रताके पुष्पोंसे गूंथो हुई माला प्रातःकाल, सायंकाल और अन्य अनुकूल निवृत्तिके समय विचार करनेसे मगलदायिका होगी । विशेष क्या कहूँ? काळ कोईने नहि मके ! हरिगीत *मोतीतणी माळा गळामा मूल्यवंती मलकती, हीरातणा शुभ हारथी बहु कंठकाति झळकती; आभूषणोथी ओपता भाग्या मरणने जोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥१॥ काल किसीको नही छोड़ता! *भावार्थ-१ जिनके गले में मोतियोकी मूल्यवती माला सुशोभित हो रही थी, जिनकी कठकाति हीरेके उत्तम हारसे बहुत प्रकाशित हो रही थी, और जो अनेक आभूषणोंसे विभुषित हो रहे थे, वे भी मृत्युको देखकर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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