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________________ १७वे वर्षसे पहले मणिमय मुगट माये घरीने कर्ण कंडल नाखता, कांचन कडां करमा घरी कशीये कचाश न राखता; पळमां पड्या पृथ्वीपति ए भान भूतळ खोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥२॥ वश आंगळीमां मांगलिक मुद्रा जडित माणिक्यथी, जे परम प्रेमे पेरता पोची कळा बारीकथी; ए वेढ वींटी सर्व छोडी चालिया मुख धोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥३॥ मूछ वांकडी करी फाकडा थई लोंबु धरता ते परे, कापेल राखो कातरा हरकोईनां हैयां हरे; ए साकडीमां आविया छटक्या तजी सहु सोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥४॥ छो खंडना अधिराज जे चंडे करीने नीपज्या, ब्रह्मांडमां बळवान थईने भूप भारे ऊपज्या; ए चतुर चक्री चालिया होता नहोता होईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥५॥ जे राजनीतिनिपुणतामां न्यायवंता नीवड्या, अवळा कयें जेना बधा सवळा सदा पासा पड्या; ए भाग्यशाळी भागिया ते खटपटो सौ , खोर्डने. जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ॥६॥ भाग गये। अर्थात् कालकवलित हो गये । इसलिये हे मनुष्यो | इसे भली भांति जाने और मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता। २. जो मस्तक पर मणिमय मुकुट धारण करते थे, कानोमें कुण्डल पहनते थे, हाथोंमें सोनेके कडे पहनते थे, और वस्त्रालकारसे सुशोभित होनेमें कोई कमी न रखते थे, ऐसे पृथ्वीपति भी क्षणभरमें बेहोश होकर भूतल पर गिर पडे । इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भॉति जाने और मनमें ठाने कि काल किसीको नही छोडता। ' ३. जो दसो अगुलियोमे माणिकसे जडित मागलिक अॅठियाँ पहनते थे, और कलाइयोमे सूक्ष्म कलामय पहुंचियाँ परम प्रेमसे पहनते थे, वे ॲगठियों आदि सब छोडकर, मुँह घोकर चल बसे । इसलिये हे मनुष्यो! इसे भली भाँति जानें ओर मनमें ठाने कि काल किसीको नही छोडता । ४ जो वांकी कर, फक्कड वनकर मूंछोपर निवू रखते थे, और जो सुदर कटे हुए वालोंसे हर किसीके मनको हरते थे, वे भी संकटमें आ गये और सब सुविधाएँ छोडकर चल दिये । इसलिये हे मनुष्यो । इमे भली भांति जानें ओर मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता। ५ जो अपने प्रतापसे छ खंडके अविराज बने हुए थे, और ब्रह्माण्डमें बलवान होकर महान सम्राट् कहलाते थे, ऐसे चतुर चक्रवर्ती भी इस तरह चल बसे कि मानो वे हुए ही न थे । इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भांति जानें और मनमें ठानें कि काल किसीको नही छोडता। ६ जो राजनीतिको निपुणतामें न्यायवान् सिद्ध हुए थे, और जिनके उलटे पामे सदा सोचे ही पडते थे, ऐसे भाग्यशाली भी सव खटपटें छोडकर भाग निकले। इसलिये हे मनुष्यो । इसे भली भाति जानें और मनमें ठाने कि काल किसोको नही छोडता ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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