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________________ ६७४ श्रीमद् राजचन्द्र तिथिका पालन करना। रातको नही खाना, न चले तो उबाला हुआ दूध लेना। वैसा वैसेको मिले; वैसा वैसेको रुचे । "चाहे चकोर ते चंदने, मधुकर मालती भोगी रे। तेम भवि सहज गुणे होवे, उत्तम निमित्त संजोगी रे॥' "चरमावतं वळी चरणकरण तथा रे, भवपरिणति परिपाक । दोष टळे ने दृष्टि खूले अति भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक ॥' अव्यवहार-राशिमेसे व्यवहार-राशिमे सूक्ष्म निगोदमेसे मारा-पोटा जाता हुआ कर्मकी अकामनिर्जरा करता हुआ, दुख भोगकर उस अकाम-निर्जराके योगसे जीव पचेंद्रिय मनुष्यभव पाता है। और इस कारणसे प्राय उस मनुष्यभवमे मुख्यत छल-कपट, माया, मूर्छा, ममत्व, कलह, वचना, कषायपरिणति आदि रहे हुए हैं। सकाम-निर्जरापूर्वक प्राप्त मनुष्यदेह विशेष सकाम-निर्जरा कराकर, आत्मतत्त्वको प्राप्त कराती है। मोरबी, चैत्र वदी ८, १९५५ 'षड्दर्शनसमुच्चय' अवलोकन करने योग्य है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पढने योग्य और वारवार विचारने योग्य है। 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रन्थ श्री हरिभद्राचार्यने सस्कृतमे रचा है। श्री यशोविजयजोने गुजरातीमे उसकी ढालबद्ध सज्झाय रची है। उसे कठाग्र कर विचारने योग्य है। ये दृष्टियाँ आत्मदशामापी (थर्मामीटर) यत्र हैं। शास्त्रको जाल समझनेवाले भूल करते हैं। शास्त्र अर्थात् शास्तापुरुषके वचन । इन वचनोको समझनेके लिये दृष्टि सम्यक् चाहिये। सदुपदेष्टाकी बहुत जरूरत है । सदुपदेष्टाकी बहुत जरूरत है। पांच-सौ हजार श्लोक मुखाग्न करनेसे पडित नही वना जाता। फिर भी थोड़ा जानकर ज्यादाका ढोग करनेवाले पडितोकी कमी नही है। ऋतुको सन्निपात हुआ है। एक पाईकी चार बीड़ी आती है। हजार रुपये रोज कमानेवाले बैरिस्टरको बीडीका व्यसन हो और उसकी तलब होनेपर बीडी न हो तो एक चतुर्थांश पाईकी कीमतकी तुच्छ वस्तुके लिये व्यर्थ दौड़धूप करता है। हजार रुपये रोज कमानेवाला अनंत शक्तिवान आत्मा है जिसका ऐसा बैरिस्टर मूर्छावश तुच्छ वस्तुके लिये व्यर्थ दोड-धूप करता है । जीवको विभावके कारण आत्मा और उसकी शक्तिका पता नहीं है। हम अग्रेजी नही पढे यह अच्छा हुआ। पढे होते तो कल्पना बढती। कल्पनाको तो छोडना है। पढा हुआ भुलने पर ही छुटकारा है। भूले बिना विकल्प दूर नहीं होते । ज्ञानकी जरूरत है। १ भावार्थ-जैसे चकोर पक्षी चद्रको चाहता है, मधुकर-भ्रमर मालतीके पुष्पमें आसक्त होता है वैसे मित्रा दृष्टिमें रहता हुआ भव्य जीव सद्गुरुयोगसे वदन-क्रिया मादि उत्तम निमित्तको स्वाभाविकरूपसे चाहता है । २ देखे आक ८६४ । ३ दोपहरके चार बजे पूर्व दिशामे आकाशमें काला वादल देखते हुए, उसे दुष्कालका एक निमित्त जानकर उपयुक्त शब्द वोले थे । इस वर्ष १९५५ का चोमासा खालो गया और १९५६ का भयकर दुष्काल पड़ा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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