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________________ उपदेश नोध ६७५ मोरबी, चैत्र वदी ९, गुरु, १९५५ यदि परम सत् पोडित होता हो तो वैसे विशिष्ट प्रसगपर सम्यग्दृष्टि देवता सार-सभाल करते हैं, प्रत्यक्ष भी आते हैं, परतु बहुत ही थोड़े प्रसगोपर । योगी या वैसी विशिष्ट शक्तिवाला वैसे प्रसगपर सहायता करता है। जीवको मति-कल्पनासे ऐसा भासित होता है कि मुझे देवताके दर्शन होते है, मेरे पास देवता आते हैं, मुझे दर्शन होता है । देवता यो दिखायी नही देते।। प्रश्न-श्री नवपद पूजामे आता है कि "ज्ञान एहि ज आत्मा, आत्मा स्वय ज्ञान हे तो फिर पढने-गुननेको अथवा शास्त्राभ्यासकी क्या जरूरत ? पढे हुए सबको कल्पित समझकर अन्तमे भूल जानेपर ही छुटकारा है तो फिर पढनेको, उपदेशश्रवणकी या शास्त्रपठनकी क्या जरूरत ? __उत्तर-'ज्ञान एहि ज आत्मा' यह एकात निश्चयनयसे है । व्यवहारसे तो यह ज्ञान आवृत है । उसे प्रगट करना है। इस प्रकटताके लिये पढना, गुनना, उपदेशश्रवण, शास्त्रपठन आदि साधनरूप हैं । परंतु यह पढना, गुनना, उपदेशश्रवण और शास्त्रपठन आदि सम्यग्दृष्टिपूर्वक होना चाहिये । यह श्रुतज्ञान कहलाता है । संपूर्ण निरावरण ज्ञान होने तक इस श्रुतज्ञानके अवलबनको आवश्यकता है। मैं ज्ञान हूँ', 'मै ब्रह्म हूँ, यो पुकारनेसे ज्ञान या ब्रह्म नही हुआ जाता। तद्रूप होनेके लिये सत्शास्त्र आदिका सेवन करना चाहिये। मोरबी, चैत्र वदी १०, १९५५ प्रश्न-दूसरेके मनके पर्याय जाने जा सकते है ? उत्तर-हाँ, जाने जा सकते हैं। स्व-मनके पर्याय जाने जा सकते हैं, तो पर-मनके पर्याय जानना सुलभ है। स्व-मनके पर्याय जानना भी मुश्किल है । स्व-मन समझमे आ जाये तो वह वशमे हो जाये । उसे समझनेके लिये सद्विचार और सतत एकाग्र उपयोगकी जरूरत है। आसनजयसे उत्थानवृत्ति उपशात होती है, उपयोग अचपल हो सकता है, निद्रा कम हो सकती है। सूर्यके प्रकाशमे सूक्ष्म रज जैसा जो दिखायी देता है, वह अणु नही है, परन्तु अनेक परमाणुओका बना हुआ स्कध है। परमाणु चक्षुसे देखे नही जा सकते । चक्षुरिद्रियलब्धिके प्रवल क्षयोपशमवाले जीव, दूरदर्शीलब्धिसपन्न योगी अथवा केवलीसे वे देखे जा सकते है। ७ मोरबी, चैत्र वदी ११, १९५५ 'मोक्षमाला' हमने सोलह वर्ष और पाँच मासकी उम्रमे तीन दिनमे लिखी थी। ६७ वें पाठपर स्याही ढुल जानेसे वह पाठ पुन. लिखना पड़ा था और उस स्थानपर 'बहु पुण्य केरा पुजथी' का अमूल्य तात्त्विक विचारका काव्य रखा था। जैनमार्गको यथार्थ समझानेका उसमे प्रयास किया है। जिनोक्तमार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक उसमे नही कहा है। वीतरागमार्गमे आवालवृद्धकी रुचि हो, उसका स्वरूप समझमे आये, उसके बीजका हृदयमे रोपण हो, इस हेतुसे उसकी बालावबोधरूप योजना की है। परन्तु लोगोको विवेक, विचार और कदर कहाँ है ? आत्मकल्याणकी इच्छा ही कम है । उस शैली और उस वोधका अनुसरण करनेके लिये भी यह नमूना दिया गया है। इसका 'प्रज्ञावबोध' भाग भिन्न है, उसे कोई रचेगा। १ 'जानावरणी जे कर्म छे, क्षय उपशम तस पाय रे। तो हुए एहि ज आवमा, ज्ञान अवोपता जाय रे ।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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