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________________ ९५६ उपदेश नोंध ( प्रासंगिक) १ * बंबई, कार्तिक सुदी, १९५० श्री 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रंथका भाषातर श्री मणिभाई नभुभाईने अभिप्रायार्थ भेजा है । अभिप्रायार्थ भेजनेवालेकी कुछ अतर इच्छा ऐसी होती है कि उससे रजित होकर उसकी प्रशसा लिख भेजना । श्री मणिभाईने भाषातर अच्छा किया है, परन्तु वह दोषरहित नही है । २ ववाणिया, चैत्र सुदी ६, बुध, १९५३ वेशभूषा चटकीली न होनेपर भी साफ-सुथरी हो ऐसी सादगी अच्छी है । चटकीलेपनसे कोई पांचसौके वेतनके पाँच-सो-एक नही कर देता, और योग्य सादगीसे कोई पाँच-सौके चार सौ निन्यानवे नही कर देता। धर्ममे लौकिक बड़प्पन, मान, महत्त्वकी इच्छा, ये धर्मके द्रोहरूप हैं । धर्म के बहानेसे अनायं देशमे जाने अथवा सूत्रादि भेजनेका निषेध करनेवाले, नगारा बजाकर निषेध करनेवाले, अपने मान, महत्व और बड़प्पनका प्रश्न आये वहाँ इसी धर्मको ठुकराकर, इसी धर्मपर पैर रखकर, इसी निषेधका निषेध करें, यह धर्मद्रोह ही है । धर्मका महत्त्व तो बहानारूप है, और स्वार्थं सम्बन्धी मान आदिका प्रश्न मुख्य है, यह धर्मद्रोह ही है । श्री वीरचद गाधीको विलायत आदि भेजने आदिमे ऐसा हुआ है । जब धर्म ही मुख्य रंग हो तब अहोभाग्य है । प्रयोगके बहानेसे पशुवध करनेवाले रोग-दुख दूर करेंगे तबकी बात तब, निरपराधी प्राणियोको खूब दुख देकर मारकर अज्ञानवश कर्मका उपार्जन विवेक-विचारके बिना इस कार्यकी पुष्टि करनेके लिये लिख मारते हैं । परन्तु अभी तो बेचारे करते है । पत्रकार भी मोरवी, चैत्र वदी ७, १९५५ ३ विशेष हो सके तो अच्छा । ज्ञानियोको भी सदाचरण प्रिय है । विकल्प कर्तव्य नही है । 'जातिस्मृति' हो सकती है । पूर्वभव जाना जा सकता है । अवधिज्ञान है । * मोरवीके मुमुक्षु साक्षर श्री मनसुखभाई फिरतचदने अपनी स्मृतिले श्रीमद्जोके प्रसंगांकी जो नोप की थी, उसमेंसे १ से २६ तकके आक लिये गये है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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