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________________ ६२४ श्रीमद राजचन्द्र उस ज्ञानको, उस दर्शनको और उस चारित्रको वारवार नमस्कार । बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ आप सबके लिखे पत्र अनेक बार हमे मिलते है, और उनकी पहुँच भी लिखना अशक्य हो जाता है; अथवा तो वैसा करना योग्य लगता है । इतनी बात स्मरणमे रखनेके लिये लिखी है । वैसा प्रसग होनेपर, कुछ आपके पत्रादिके लेखन-दोषसे ऐसा हुआ होगा या नही इत्यादि विकल्प आपके मनमे न होनेके लिये यह स्मरण रखनेके लिये लिखा है। जिनकी भक्ति निष्काम है ऐसे पुरुषोका सत्सग या दर्शन महापुण्यरूप समझना योग्य है। आपके निकटवर्ती सत्सगियोको समस्थितिसे यथायोग्य । ८१० बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ __ पारमार्थिक हेतुविशेषसे पत्रादि लिखना नही बन पाता । - जो अनित्य है, जो असार है और जो अशरणरूप है वह इस जीवको प्रीतिका कारण क्यो होता है यह बात रात दिन विचार करने योग्य है।' लोकदृष्टि ओर ज्ञानीकी दृष्टिमे पश्चिम पूर्व जितना अन्तर है। ज्ञानीकी दृष्टि प्रथम तो निरालम्बन है, रुचि उत्पन्न नही करती, जीवकी प्रकृतिसे मेल नही खाती, जिससे जीव उस दृष्टिमे रुचिमान नही होता । परन्तु जिन जीवोने परिषह सहन करके कुछ समय तक उस दृष्टिका आराधन किया है, वे सर्व दु.खके क्षयरूप निर्वाणको प्राप्त हुए है, उसके उपायको प्राप्त हुए है। . जीवको प्रमादमे अनादिसे रति है, परन्तु उसमे रति करने योग्य कुछ दिखायी नही देता । ॐ ८११ ___ बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ सब जीवोके प्रति हमारी तो क्षमादृष्टि है। ... सत्पुरुषका योग और सत्समागम मिलना बहुत कठिन है, इसमे सशय नही है। ग्रीष्म ऋतुके तापसे संतप्त प्राणीको शीतल वृक्षको छायाको तरह मुमुक्षुजीवको सत्पुरुषका योग तथा सत्समागम उपकारी है । सर्व शास्त्रोमे वैसा योग मिलना दुर्लभ कहा है। 'शातसुधारस' और 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रथोका अभी विचार करना रखें । ये दोनो ग्रन्थ प्रकरणरत्नाकर पुस्तकमे छपे हैं । ॐ ८१२ बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ - किसी एक पारमार्थिक हेतुविशेषसे पत्रादि लिखना नही हो सकता। विशेष ऊँची भूमिकाको प्राप्त मुमुक्षुओको भी सत्पुरुषोका योग अथवा सत्समागम आधारभूत है, इसमे सशय नही है । निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका योग होनेसे जीव उत्तरोत्तर ऊँची भूमिका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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