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________________ ८०५ ३० वो वर्ष ६२३ बंबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ आज तक आपका तथा अबालाल आदि सभी - मुमुक्षुओका मुझसे कोई अपराध या अविनय हुआ हो उसके लिये आप सबसे क्षमा चाहता हूँ। फेणायसे पोपटभाईका पत्र मिला था। अभी किसी सद्ग्रथको पढनेके लिये उन्हे लिखे । यही विनती। ८०६ बबई, भादो वदो ८, रवि, १९५३ श्री डुंगर आदि मुमुक्षु, __ मगनलालने मन आदिकी पहचानके प्रश्न लिखे हैं, उन्हे समागममे पूछनेसे समझना बहुत सुलभ होगा । पत्रद्वारा समझमे आने कठिन है। श्री लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको आत्मस्मरणपूर्वक यथाविनय प्राप्त हो । जीवको परमार्थप्राप्तिमे अपार अतराय है; उसमे भी इस कालमे तो उन अंतरायोका अवर्णनीय बल होता है । शुभेच्छासे लेकर कैवल्यपर्यंतकी भूमिकामे पहुँचते हुए जगह जगह वे अतराय देखनेमे आते हैं, और वे अतराय जीवको वारवार परमार्थसे गिराते है। जीवको महापुण्यके उदयसे यदि सत्समागमका अपूर्व लाभ मिलता रहे तो वह निर्विघ्नतासे कैवल्यपर्यंतकी भूमिकामे पहुँच जाता है। सत्समागमके वियोगमे जीवको आत्मबल विशेष जाग्रत रखकर सत्शास्त्र और शुभेच्छासंपन्न पुरुषोंके समागममे रहना योग्य है। ८०७ बबई, भादो वदी ३०, रवि, १९५३ शरीर आदि बलके घटनेसे सब मनुष्योंसे मात्र दिगबर-वृत्तिसे रहकर चारित्रका निर्वाह नही हो सकता. इसलिये वर्तमानकाल जैसे कालमे मर्यादापूर्वक श्वेताम्बर-वृत्तिसे चारित्रका निर्वाह करनेके लिये ज्ञानीने जिस प्रवृत्तिका उपदेश किया है, उसका निषेध करना योग्य नही है। इसी तरह वस्त्रका आग्रह रखकर दिगवर-वृत्तिका एकात निषेध करके वस्त्रमूर्छा आदि कारणोंसे चारित्रमे शिथिलता भी कर्तव्य नही है। दिगबरत्व और श्वेताबरत्व, देश, काल और अधिकारीके योगसे उपकारके हेतु हैं । अर्थात् जहा ज्ञानोने जिस प्रकार उपदेश किया है उस तरह प्रवृत्ति करनेसे आत्मार्थ ही है। 'मोक्षमार्गप्रकाश' मे, वर्तमान जिनागम जो श्वेताबर सप्रदायको मान्य है, उनका निपेध किया है. वह निषेध करना योग्य नही है। वर्तमान आगममे अमुक स्थल अधिक संदेहास्पद हैं, परतु सत्पुरुषकी दृष्टिसे देखनेपर उसका निराकरण हो जाता है, इसलिये उपशमदृष्टिसे उन आगमोका अवलोकन करनेमे सशय करना योग्य नही है। ८०८ बबई, आसोज सुदी ८, रवि, १९५३ सत्पुरुषोंके गगाघ गंभीर संयमको नमस्कार विषम परिणामसे जिन्होने कालकूट विष पिया ऐसे श्री ऋषभ आदि परम पुरुषोको नमस्कार । परिणाममे तो जो अमृत ही है, परन्तु प्रथम दशामे कालकूट विषकी भांति उद्विग्न करता है, ऐसे श्री सयमको नमस्कार।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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