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________________ ३० वॉ वर्ष ६२५ को प्राप्त करता है । निवृत्तिमान भाव परिणाम होनेके लिये जीवको निवृत्तिमान द्रव्य, क्षेत्र और काल प्राप्त करना योग्य है । शुद्ध समझसे रहित इस जीवको किसी भी योगसे शुभेच्छा, कल्याण करनेकी इच्छा प्राप्त हो और निस्पृह परम पुरुषका योग मिले तो ही इस जीवको भान आना सम्भव है । उसके वियोगमे सत्शास्त्र और सदाचारका परिचय कर्तव्य है, अवश्य कर्तव्य है । श्री डुंगर आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य | ८१३ बंबई, आसोज वदी ७, १९५३ ऊपरकी भूमिकाओमे भी अवकाश मिलनेपर अनादि वासनाका सक्रमण हो आता है, और आत्माको वारवार आकुल-व्याकुल कर देता है। वारवार यो हुआ करता है कि अब ऊपरकी भूमिकाकी प्राप्ति होना दुर्लभ ही है, और वर्तमान भूमिकामे स्थिति भी पुन होना दुर्लभ है। ऐसे असंख्य अतराय - परिणाम ऊपरकी भूमिकामे भी होते है, तो फिर शुभेच्छादि भूमिकामे वैसा हो, यह कुछ आश्चर्यकारक नही है । वैसे अतरायसे खिन्न न होते हुए आत्मार्थी जीव पुरुषार्थदृष्टि रखे, श्रवीरता रखे, हितकारी द्रव्य, क्षेत्र आदि योगका अनुसधान करे, सत्शास्त्रका विशेष परिचय रखकर, वारंवार हठ करके भी मनको सद्विचारमे लगाये और मनके दौरात्म्यसे आकुल-व्याकुल न होते हुए धैर्यसे सद्विचारपथपर जानेका उद्यम करते हुए जय पाकर ऊपरकी भूमिकाको प्राप्त करता है और अविक्षिप्तता प्राप्त करता है । 'योगदृष्टिसमुच्चय' वारवार अनुप्रेक्षा करने योग्य है । 1 ८१४ - बबई, आसोज वदी १४, रवि, १९५३ ॐ श्री हरिभद्राचार्यने 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रन्थ संस्कृतमे रचा है । 'योगबिंदु' नामक योगका दूसरा ग्रन्थ भी उन्होने रचा है। हेमचद्राचार्यने 'योगशास्त्र' नामक ग्रन्थ रचा है । श्री हरिभद्रकृत ‘योगदृष्टिसमुच्चय' की पद्धतिसे गुर्जर भाषामे श्री यशोविजयजीने स्वाध्यायको रचना की है। शुभेच्छासे लेकर निर्वाणपर्यंतकी भूमिकाओमे मुमुक्षुजीवको वारवार श्रवण करने योग्य, विचार करने योग्य और स्थिति करने योग्य आशयसे बोध- तारतम्य तथा चारित्र स्वभावका तारतम्य उस ग्रन्थमे प्रकाशित किया है । यमसे लेकर समाधिपर्यंत अष्टागयोग दो प्रकारके है-एक प्राणादि निरोधरूप और दूसरा आत्मस्वभावपरिणामरूप । 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे आत्मस्वभावपरिणामरूपं योगका मुख्य विषय है । वारवार वह विचार करने योग्य है । श्री घुरीभाई आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य प्राप्त हो ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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