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________________ ६२२२ श्रीमद् राजचन्द्र - सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यत श्रुतज्ञान (ज्ञानी पुरुषोके वचनो) का अवलबन जब जब मंद पडता है तब तब सत्पुरुष भी कुछ न कुछ चपलता पा जाते हैं, तो फिर सामान्य मुमुक्षु जीव कि जिन्हे विपरीत समागम, विपरीत श्रुत आदि अवलंबन रहे है उन्हे वारवार विशेष विशेष चपलता होना सभव है। __ ऐसा है तो भी जो मुमुक्षु सत्समागम, सदाचार और सत्शास्त्रविचाररूप अवलबनमे दृढ निवास करते हैं, उन्हे सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यंत पहुंचना कठिन नही है, कठिन होनेपर भी कठिन नहीं है। ८०० बबई, श्रावण वदी १२, १९५३ पत्र मिला है । दीवाली तक प्रायः इस क्षेत्रमे स्थिति होगी। द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे जिन सत्पुरुषोको प्रतिबध नही है उन सत्पुरुषोको नमस्कार | सत्समागम, सत्शास्त्र और सदाचारमे दृढ निवास, ये आत्मदशा होनेके प्रबल अवलंबन है । सत्समागमका योग दुर्लभ है, तो भी मुमुक्षुको उस योगकी तीव्र अभिलाषा रखना और प्राप्ति करना योग्य है । उस योगके अभावमे तो जीवको अवश्य ही सत्शास्त्ररूप विचारके अवलबनसे सदाचारकी जाग्रति रखना योग्य है। ८०१ बबई, भादो सुदी ६, गुरु, १९५३ परमकृपालु पूज्य पिताजी, ववाणियाबंदर। । आज दिन तक मैंने आपकी कुछ भी अविनय, अभक्ति या अपराध किया हो, तो दो हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर शुद्ध अतःकरणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपा करके आप क्षमा प्रदान करे । अपनी माताजीसे भी इसी तरह क्षमा मांगता हूँ। इसी प्रकार अन्य सब साथियोके प्रति मैने जाने-अनजाने किसी भी प्रकारका अपराध या अविनय किया हो उसके लिये शुद्ध अत करणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपया सब क्षमा प्रदान करे। ८०२ बबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ बाह्य क्रिया और गुणस्थानकादिमे की जानेवाली क्रियाके स्वरूपकी चर्चा करना, अभी प्रायः स्व-पर उपकारी नही होगा । इतना कर्तव्य है कि तुच्छ मतमतातरपर दृष्टि न डालते हुए असवृत्तिके निरोधके लिये सत्शास्त्रके परिचय और विचारमे जीवकी स्थिति करना। ८०३ । बंबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ शुभेच्छा योग्य, __आपका पत्र मिला है। इस क्षण तक आपका तथा आपके समागमवासी भाइयोका कोई भी अपराध या अविनय मुझसे हुआ हो उसके लिये नम्रभावसे क्षमा माँगता हूँ। ॐ ८०४ __बबई, भादो सुदी ९, रवि, १९५३ मुनिपथानुगामी श्री लल्लुजी आदि मुमुक्षु तथा शुभेच्छायोग्य भावसार मनसुखलाल आदि मुमुक्षु, श्री खेडा। आज तक आपका कोई भी अपराध या अविनय इस जीवसे हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा मांगता हूँ। ॐ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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