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________________ ३० वॉ वर्ष ६१९ अवश्य उस असग उपयोगको प्राप्त करते हैं । जिस श्रुतसे असंगता उल्लसित हो उस श्रुतका परिचय कर्तव्य है । ७८७ बबई, आषाढ वदी १, गुरु, १९५३ 1 श्री सोभागकी देहमुक्त समयकी दशाके बारेमे जो पत्र लिखा है वह भी यहां मिला है । कर्मग्रन्थका क्षिप्त स्वरूप लिखा वह भी यहाँ मिला है । आर्य सोभागकी बाह्याभ्यंतर दशाकी वारंवार अनुप्रेक्षा कर्तव्य है । श्री नवलचदद्वारा प्रदर्शित प्रश्नका विचार आगे कर्तव्य है । जगतसुखस्पृहामे ज्यो ज्यो खेद उत्पन्न होता है त्यो त्यो ज्ञानीका मागं स्पष्ट सिद्ध होता है । बबई, आषाढ वदी ११, रवि, १९५३ ७८८ परम संयमी पुरुषोको नमस्कार असारभूत व्यवहारको सारभूत प्रयोजनकी भाँति करनेका उदय रहनेपर भी जो पुरुष उस उदयसे क्षोभ न पाकर सहजभाव स्वधर्ममे निश्चलतासे रहे है, उन पुरुषोके भीष्मव्रतका वारवार स्मरण करते हैं । सब मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । ७८९ ॐ नमः प्रथम पत्र मिला था | अभी एक चिट्ठी मिली है । मणिरत्नमालाकी पुस्तक फिरसे पढनेसे अधिक मनन हो सकेगा । श्री डुगर तथा लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको धर्मस्मरण प्राप्त हो । श्री डुगरसे कहियेगा कि प्रसंगोपात्त कुछ ज्ञानवार्ता प्रश्नादि लिखे अथवा लिखवायें । 1 बंबई, आषाढ वदी १४, बुध, १९५३ सत्शास्त्रका परिचय नियमपूर्वक निरतर करना योग्य है । एक दूसरेके समागममे आनेपर आत्मार्थ वार्ता कर्तव्य है । ७९० परन उत्कृष्ट संयम जिनके लक्ष्यमें निरंतर रहा करता है, उन सत्पुरुषोंके समागमका ध्यान निरंतर रहता है । बबई, श्रावण सुदी ३, रवि, १९५३ प्रतिष्ठित व्यवहारकी श्री देवकीर्णजीकी अभिलाषासे अनतगुणविशिष्ट अभिलाषा रहती है। बलवान और वेदन किये बिना अटल उदय होनेसे अंतरग खेदका समतासहित वेदन करते हैं । दीर्घकालको अति अल्पकालमे लानेके ध्यानमे रहते हैं । यथार्थ उपकारी प्रत्यक्ष पुरुषमे एकत्वभावना आत्मशुद्धिको उत्कृष्टता करती है । सव मुनियोको नमस्कार ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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