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________________ ६२० श्रीमद राजचन्द्र ७९१ बंबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३ जिसको दीर्घकालकी स्थिति है, उसे अल्पकालकी स्थितिमे लाकर, जिन्होने कर्मक्षय किया हैं, उन महात्माओको नमस्कार । सद्वर्तन, सद्ग्रन्थ और सत्समागममे प्रमाद कर्तव्य नही है । ७९२ बबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३ दो पत्र मिले हैं । 'मोक्षमार्गप्रकाश' नामक ग्रन्थ आज डाकसे भिजवाया है, वह मुमुक्षुजीवको विचार करने योग्य है । अवकाश निकालकर प्रथम श्री लल्लुजी और देवकीर्णजी उसे सपूर्ण पढे और मनन करे, बादमे बहुतसे प्रसग दूसरे मुनियोको श्रवण कराने योग्य है । श्री देवकीर्ण मुनिने दो प्रश्न लिखे हैं । उनका उत्तर प्राय: अबके पत्रमे लिखूँगा । ‘मोक्षमार्गप्रकाश' का अवलोकन करते हुए किसी विचारमे मतातर जैसा लगे, तो उद्विग्न न होकर उस स्थलका अधिक मनन करना, अथवा सत्समागमके योगमे उस स्थलको समझना योग्य है । परमोत्कृष्ट सयममे स्थितिकी बात तो दूर रही, परन्तु उसके स्वरूपका विचार होना भी विकट है । ७९३ बंबई, श्रावण सुदी १५, गुरु, १९५३ 'सम्यग्दृष्टि अभक्ष्य आहार करता है ?" इत्यादि प्रश्न लिखे । उन प्रश्नोंके हेतुका विचार करनेसे पता चलेगा कि प्रथम प्रश्नमे किसी एक दृष्टान्तको लेकर जीवको शुद्ध परिणामकी हानि करने जैसा है । मतिकी अस्थिरतासे जीव परिणामका विचार नही कर सकता । श्रेणिक आदिके सबध मे किसी एक स्थलपर ऐसी बात किसी एक ग्रन्थमे कही है, परंतु वह किसीके प्रवृत्ति करनेके लिये नही कही है, तथा यह बात यथार्थ इसी तरह है यह भी नही है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि पुरुषको अल्पमात्र व्रत नही होता तो भी सम्यग्दर्शन होनेके बाद जीव उसका वमन न करे तो अधिकसे अधिक पद्रह भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसा सम्यग्दर्शनका बल है, इस हेतुसे कही हुई बातको दूसरे रूपमे न ले जायें । सत्पुरुषकी वाणी विषय और कषायके अनुमोदनसे अथवा रागद्वेषके पोषणसे रहित होती है, यह निश्चय रखें, और चाहे जैसे प्रसगमे उसी दृष्टिसे अर्थ करना योग्य है । - श्री डुगर आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य । अभी डुगर कुछ पढते है ? सो लिखियेगा । ७९४ बबई, श्रावण वदी १, शुक्र, १९५३ पहले एक पत्र मिला था। दूसरा पत्र अभी मिला है । आर्य सोभागका समागम आपको अधिक समय रहा होता तो बहुत उपकार होता । परतु भावी प्रबल है। उसके लिये उपाय यह है कि उनके गुणोका वारवार स्मरण करके जीवमे वैसे गुण उत्पन्न हो, ऐसा वर्तन करें । 1 " नियमितरूपसे नित्य सद्ग्रंथका पठन तथा मनन रखना योग्य है । पुस्तक आदि कुछ चाहिये तो यहाँ मनसुखको लिखें। वे आपको भेज देंगे । ॐ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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