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________________ श्रीमद राजचन्द्र आरंभ-परिग्रहसे जिनकी वृत्ति खिन्न हो गई है, अर्थात् उसे असार समझकर जो जोव उससे पीछे हट गये है, उन जीवोको सत्पुरुषोका समागम और सत्शास्त्रका श्रवण विशेषतः हितकारी होता है । जिस जीवकी आरम्भ-परिग्रहमे विशेष वृत्ति रहती हो, उस जीवमे सत्पुरुषके वचनोका अथवा सत्शास्त्रका परिणमन होना कठिन है । आरम्भ परिग्रहमे वृत्तिको मद करना और पडता है, क्योकि जीवका अनादि प्रकृतिभाव उससे लिया है वह वैसा कर सका है, इसलिये विशेष उत्साह रखकर वह प्रवृत्ति कर्तव्य है । सब मुमुक्षुओको इस बातका निश्चय और नित्य नियम करना योग्य है, प्रमाद और अनियमितता दूर करना योग्य है । ६१८ सत्शास्त्रके परिचयमे रुचि करना प्रथम तो कठिन भिन्न है, तो भी जिसने वैसा करनेका निश्चय कर ७८४ बबई, आषाढ सुदी ४, रवि, १९५३ सच्चे ज्ञानके बिना और सच्चे चारित्रके बिना जीवका कल्याण नही होता, यह नि:संदेह है । सत्पुरुषके वचनोका श्रवण, उसकी प्रतीति, और उसकी आज्ञासे प्रवृत्ति करते हुए जीव सच्चे चारित्रको प्राप्त करते है, ऐसा नि सन्देह अनुभव होता है । यहाँसे 'योगवासिष्ठ' की पुस्तक भेजी है, उसे पाँच-दस बार पुनः पुनः पढना और वारंवार विचारना योग्य है | ७८५ बबई, आषाढ वदी १, गुरु, १९५३ श्री धुरीभाईने 'अगुरुलघु' के विषयमे प्रश्न लिखवाया, उसे प्रत्यक्ष समागममे समझना विशेष सुगम है । शुभेच्छासे लेकर शैलेशीकरण तककी सभी क्रियाएं जिस ज्ञानीको मान्य है, उस ज्ञानीके वचन त्यागवैराग्यका निषेध नही करते । त्याग - वैराग्यके साधनरूपमे प्रथम जो त्याग - वैराग्य आता है, उसका भी ज्ञानी निषेध नही करते । किसी एक जड-क्रिया प्रवृत्ति करके जो ज्ञानीके मार्गसे विमुख रहता हो, अथवा मतिकी मूढता के कारण ऊँची दशाको पानेसे रुक जाता हो, अथवा असत्समागमसे मतिव्यामोहको प्राप्त होकर जिसने अन्यथा त्याग - वैराग्यको सच्चा त्याग वैराग्य मान लिया हो, उसका निषेध करनेके लिये करुणाबुद्धिसे ज्ञानी योग्य वचनसे क्वचित् उसका निषेध करते हो, तो व्यामोह प्राप्त न कर उसका सद्हेतु समझकर यथार्थ त्याग - वैराग्यकी अतर तथा बाह्य क्रियामे प्रवृत्ति करना योग्य है । · ७८६ बंबई, आषाढ़ वदी १, गुरु, १९५३ " सकळ संसारी इद्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे । मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निःकामी रे ॥' हे मुनियो । आपको आर्यं सोभागकी अंतरग दशा और देहमुक्त समयकी दशाकी वारवार अनुप्रेक्षा ना योग्य है । मुनियो । आपको द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे ओर भावसे असंगतापूर्वक विचरनेका सतत उपयोग सिद्ध करना योग्य है । जिन्होंने जगतसुखस्पृहाको छोड़कर ज्ञानीके मार्गका आश्रय ग्रहण किया है, वे १ भावार्थके लिये देखें आक ७४३ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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