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________________ ३० वॉ वर्ष ६१७ इस क्षेत्र, इस कालमे श्री सोभाग जैसे विरल पुरुष मिलते है, ऐसा हमे वारवार भासित होता है । धीरजसे सभी खेदकोशात करें, और उनके अद्भुत गुणो तथा उपकारी वचनोका आश्रय लें, यह योग्य है । मुमुक्षुको श्री सोभागका स्मरण करना योग्य नही है । 7 जिसने ससारका स्वरूप स्पष्ट जाना है उसे उस ससारके पदार्थकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिसे हर्ष-शोक होना योग्य नही है, तो भी ऐसा लगता है कि सत्पुरुष के समागमकी प्राप्तिसे कुछ भी हर्पं और उनके वियोगसे कुछ भी खेद अमुक गुणस्थानक तक उसे भी होना योग्य है । 'आत्मसिद्धि' ग्रन्थ आप अपने पास रखें । त्रबक और मणि विचार करना चाहे तो विचार करें, परन्तु उससे पहले कितने ही वचन तथा सद्ग्रन्थोका विचारना बनेगा तो आत्मसिद्धि बलवान उपकारका हेतु होगा, ऐसा लगता है । श्री सोभागको सरलता, परमार्थ संबंधी निश्चय, मुमुक्षुके प्रति उपकारशीलता आदि गुण वारवार विचारणीय हैं । शांतिः शांति. शाति ७८३ बबई, आषाढ़ सुदी ४, रवि, १९५३ श्री सोभागको नमस्कार श्री सोभागकी मुमुक्षुदशा तथा ज्ञानीके मार्गके प्रति उनका अद्भुत निश्चय वारंवार स्मृतिमे आया करता है । सर्व जीव सुखकी इच्छा करते है, परन्तु कोई विरले पुरुष उस सुखके यथार्थ स्वरूपको जानते है । जन्म, मरण आदि अनत दु खोके आत्यंतिक (सर्वथा) क्षय होनेके उपायको जीव अनादिकालसे नही जानता, उस उपायको जानने और करनेकी सच्ची इच्छा उत्पन्न होनेपर जीव यदि सत्पुरुषके समागमका लाभ प्राप्त करे तो वह उस उपायको जान सकता है, और उस उपायकी उपासना करके सर्व दु खसे मुक्त हो जाता है । ऐसी सच्ची इच्छा भी प्राय. जीवको सत्पुरुषके समागमसे ही प्राप्त होती है । ऐसा समागम, उस समागमको पहचान, प्रदर्शित मार्गकी प्रतीति और उसी तरह चलनेकी प्रवृत्ति जीवको परम दुर्लभ है । मनुष्यता, ज्ञानीके वचनोका श्रवण प्राप्त होना, उसकी प्रतीति होना, और उनके कहे हुए मार्गमे प्रवृत्ति होना परम दुर्लभ है, ऐसा श्री वर्धमानस्वामीने उत्तराध्ययनके तीसरे अध्ययनमे उपदेश किया है । प्रत्यक्ष सत्पुरुषका समागम और उनके आश्रयमे विचरनेवाले मुमुक्षुओको मोक्षसबधी सभी साधन प्रायः अल्प प्रयाससे और अल्पकालमे सिद्ध हो जाते है, परन्तु उस समागमका योग मिलना दुर्लभ है । उसी समागमके योग मुमुक्षुजीवका चित्त निरन्तर रहता है । जीवको सत्पुरुषका योग मिलना तो सर्व कालमे दुर्लभ है । उसमे भी ऐसे दु पमकालमे तो वह योग क्वचित् ही मिलता है। विरले ही सत्पुरुष विचरते हैं । उस समागमका लाभ अपूर्व है, यो समझकर जीवको मोक्षमार्गकी प्रतीति कर, उस मार्गका निरन्तर आराधन करना योग्य है । जब उस समागमका योग न हो तब आरम्भ-परिग्रहकी ओरसे वृत्तिको हटाकर सत्शास्त्रका परिचय विशेषत कर्तव्य है । व्यावहारिक कार्योकी प्रवृत्ति करनी पडती हो तो भो जो जीव उसमे वृत्तिको मद करनेकी इच्छा करता है वह जीव उसे मंद कर सकता है, और सत्शास्त्रके परिचय के लिये बहुत अवकाश प्राप्त कर सकता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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