SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 737
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद राजचन्द्र किसीके लिये विकल्प न करते हुए असंगता ही रखियेगा । ज्यो ज्यो सत्पुरुषके वचन उन्हे प्रतीतिमे आयेंगे, ज्यो ज्यो आज्ञासे अस्थिमज्जा रगो जायेगी, त्यो त्यो वे सब जीव आत्मकल्याणको सुगमतासे प्राप्त करेंगे, यह नि सदेह है । ६१६ त्रक, मणि आदि मुमुक्षुओको तो इस वारके समागममे कुछ आतरिक इच्छासे सत्समागममे रुचि हुई है, इसलिये एकदम दशा विशेष न हो तो भी आश्चर्य नही है । सच्चे अत'करणसे विशेष सत्समागमके आश्रयसे जीवको उत्कृष्ट दशा भी बहुत थोडे समयमे प्राप्त होती है । व्यवहार अथवा परमार्थसवधी किसी भी जीवके बारेमे इच्छा रहती हो, तो उसे उपशांत करके सर्वथा असग उपयोगसे अथवा परमपुरुपकी उपर्युक्त दशाके अवलंवनसे आत्मस्थिति करें, यह विज्ञापना है, क्योकि दूसरा कोई भी विकल्प रखने जैसा नही है । जो कोई सच्चे अत करणसे सत्पुरुषके वचनोको ग्रहण करेगा वह सत्यको पायेगा, इसमे कोई सशय नहीं है, और शरीर निर्वाह आदि व्यवहार सबके अपने अपने प्रारब्धके अनुसार प्राप्त होने योग्य है, इसलिये तत्सवधी भी कोई विकल्प रखना योग्य नही है | जिस विकल्पको आपने प्राय शांत कर दिया है, तो भी निश्चयकी प्रबलताके लिये लिखा है । सब जीवोके प्रति, सभी भावोके प्रति अखंड एक रस वीतरागदशा रखना यही सर्व ज्ञानका फल है । आत्मा शुद्ध चैतन्य, जन्मजरामरणरहित असग स्वरूप है, इसमे सवं ज्ञान समा जाता है; उसकी प्रतीतिमे सर्व सम्यक्दर्शन समा जाता है, आत्माकी असगस्वरूपसे स्वभावदशा रहे वही सम्यक्चारित्र, उत्कृष्ट सयम और वीतरागदशा है। जिसकी सपूर्णताका फल सर्व दुखका क्षय है, यह सर्वथा नि सदेह है, सर्वथा नि सदेह है । यही विनती । ७८२ बबई, जेठ वदी १२, शनि, १९५३ आर्यं श्री सोभागने जेठ वदी १० गुरुवार सवेरे १० बजकर ५० मिनिटपर देह त्याग किया, यह समाचार पढ़कर बहुत खेद हुआ है। ज्यो ज्यो उनके अद्भुत गुणोके प्रति दृष्टि जाती है, त्यो त्यो अधिकाधिक खेद होता है । जीवके साथ देहका संवध इसी तरहका है । ऐसा होनेपर भी अनादिसे उस देहका त्याग करते हुए जीव खेद प्राप्त किया करता है, और उसमे दृढमोहसे एकमेककी तरह प्रवर्तन करता है, यही जन्ममरणादि ससारका मुख्य बीज है । श्री सोभागने ऐसी देहका त्याग करते हुए महामुनियोको भी दुर्लभ ऐसी निश्चल असगतासे निज उपयोगमय दशा रखकर अपूर्व हित किया है, इसमे सराय नही है । गुरुजन होनेसे, आपके प्रति उनके बहुत उपकार होनेसे तथा उनके गुणोकी अद्भुतासे उनका वियोग आपके लिये अधिक खेदकारक हुआ है, और होने योग्य है । उनकी सासारिक गुरुजनताके खेदको विस्मरणकर, उन्होने आप सब पर जो परम उपकार किया हो तथा उनके गुणोकी जो जो अद्भुतता आपको प्रतीत हुई हो, उसे वारवार याद करके, वैसे पुरुपके वियोगका अतरमे खेद रखकर, उन्होंने आराधन करने योग्य जो जो वचन और गुण बताये हो उनका स्मरण कर उनमे आत्माको प्रेरित करें, यह आप सबसे विनती है । समागममे आये हुए मुमुक्षुओको श्री सोभागका स्मरण सहज ही बहुत समय तक रहने योग्य है । मोहसे जिम समय खेद उत्पन्न हो उस ममय भी उनके गुणोकी अद्भुतताका स्मरण करके मोहजन्य खेदको शात करके, उनके गुणोकी अद्भुतना के विरहमे उस खेदको लगाना योग्य है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy