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________________ ६१४ श्रीमद् राजचन्द्र EEEEEE अनुभवउत्साहदशा . जैसौ निरभेदरूप, निहचै अतीत हुतौ । तैसी निरभेद अब, भेदको न गहेगी। दोसै कर्मरहित सहित सुख समाधान । पायौ निजथान फिर बाहरि न बहेगी । कबहूँ कदापि अपनौ सुभाव त्यागि करि । राग रस राचिकैं न परवस्तु गहेगौ ॥ अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो। याहि भाति आगम अनत काल रहेगौ ॥ स्थितिदशा एक परिनामके न करता दरव दोई। दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है। एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करै। दोई करतूति एक दर्व न करतु है। जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोऊ। अपने अपने रूप कोऊ न टरतु है ॥ जड़ परिनामनिको करता है - पुद्गल । चिदानन्द - चेतन सुभाव आचरतु है ॥ श्री सोभागको विचार करनेके लिये यह पत्र लिखा है, इसे अभी श्री अवालाल अथवा किसी दूसरे योग्य मुमुक्षु द्वारा उन्हें ही सुनाना योग्य है। __ आत्मा सर्व अन्यभावसे रहित है, जिसे सर्वथा ऐसा अनुभव रहता है वह 'मुक्त' है। जिसे अन्य सर्व द्रव्यसे असगता, क्षेत्रसे असंगता, कालसे असंगता और भावसे असगता सर्वथा रहती है, वह 'मुक्त' है। अटल अनुभवस्वरूप आत्मा सव द्रव्योसे प्रत्यक्ष भिन्न भासित हो तबसे मुक्तदशा रहती है। वह पुरुष मान हो जाता है. वह पुरुष अप्रतिबद्ध हो जाता है, वह पुरुष असग हो जाता है, वह पुरुष निर्विकल्प हो जाता है और वह पुरुष मुक्त हो जाता है। जिन्होने तीनो कालमे देहादिसे अपना कुछ भी संबध न था, ऐसी असगदशा उत्पन्न की है उन भगवानरूप सत्पुरुषोको नमस्कार हो। तिथि आदिका विकल्प छोडकर निज विचारमे रहना यही कर्तव्य है। शुद्ध सहज आत्मस्वरूप । ... १ भावार्थ-ससारी दशामें निश्चयनयसे आत्मा जिस प्रकार अभेदरूप था उसी प्रकार प्रगट हो गया। उस परमात्माको अब भेदरूप कोई नहीं कहेगा। जो कम रहित और सुख-शातिसहित दिखायी देता है, तथा जिसने अपने स्थान-मोक्षको पा लिया है, वह अब जन्म-मरणरूप ससारमं नहीं आयेगा। वह कभी भी अपना स्वभाव छोडफर रागद्वपमें पडकर परवस्तुको ग्रहण नहीं करेगा, क्योकि वर्तमानकालमे जो निर्मल पूर्ण ज्ञान प्रगट हुआ है, वह तो आगामी अनतकाल तक ऐसा ही रहेगा। २ भावार्यके लिये देखें आक ३१७ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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