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________________ ३० वा वर्ष ६०९ क्षयोपशम समकित हो अथवा उपशम समकित हो, तो जीव उसका वमन कर सकता है, परन्तु क्षायिक समकित हो तो उसका वमन नही किया जा सकता। क्षायिक समकिती जीव उसी भवमे मोक्ष प्राप्त करता है, अधिक भव करे तो तीन भव करता है, और किसी एक जीवकी अपेक्षा क्वचित् चार भव होते हैं । युगलियाकी आयुका बध होनेके वाद क्षायिक समकित उत्पन्न हुआ हो, तो चार भव होना सभव है, प्रायः किसी ही जीवको ऐसा होता है। भगवान तीर्थंकरके निग्रंथ, निग्रंथिनियो, श्रावक तथा श्राविकाओको कुछ सभीको जीवाजीवका ज्ञान था, इसलिये उन्हे समकित कहा है ऐसा सिद्धातका अभिप्राय नही है। उनमेसे कितने ही जीवोको, तीर्थंकर सच्चे पुरुष है, सच्चे मोक्षमार्गके उपदेष्टा है, जिस तरह वे कहते है उसी तरह मोक्षमार्ग हे, ऐसी प्रतीतिसे, ऐसी रुचिसे, श्री तीर्थंकरके आश्रयसे और निश्चयसे समकित कहा है। ऐसी प्रतीति, ऐसी रुचि, और ऐसे आश्रयका तथा आज्ञाका जो निश्चय है, वह भी एक तरहसे जीवाजोवके ज्ञानस्वरूप है। पुरुष सच्चे है और उनकी प्रतीति भी सच्ची हुई है कि जिस तरह ये परमकृपालु कहते है उसी तरह मोक्षमार्ग है वैसा ही मोक्षमार्ग होता है, उस पुरुषके लक्षण आदि भी वीतरागताकी सिद्धि करते हैं। जो वीतराग होता है वह पुरुष यथार्थ वक्ता होता है, और उसी पुरुषकी प्रतीतिसे मोक्षमार्ग स्वीकार करने योग्य होता है ऐसी सुविचारणा भी एक प्रकारका गौणतासे जीवाजोवका ही ज्ञान है । उस प्रतीतिसे, उस रुचिसे और उस आश्रयसे फिर अनुक्रमसे स्पष्ट विस्तारसहित जीवाजीवका ज्ञान होता है। तथारूप पुरुषकी आज्ञाकी उपासनासे रागद्वेषका क्षय होकर वीतरागदशा उत्पन्न होती है। तथारूप सत्पुरुषके प्रत्यक्ष योगके बिना यह समकित होना कठिन है। वैसे पुरुषके वचनरूप शास्त्रोंसे पूर्वकालके किसी आराधक जीवको समकित होना सम्भव है, अथवा कोई एक आचार्य प्रत्यक्षरूपसे उस वचनके हेतुसे किसी जीवको समकित प्राप्त कराता है। ७७२ ववाणिया, चैत्र सुदी १०, सोम, १९५३ ॐ सर्वज्ञाय नमः औषधादि सप्राप्त होनेपर कितने ही रोगादिपर असर करते है, क्योकि उस रोगादिके हेतुका कर्मबध कुछ उसी प्रकारका होता है । औषधादिके निमित्तसे वह पुद्गल विस्तारमे फैलकर अथवा दूर होकर वेदनीयके उदयके निमित्तपनको छोड़ देता है। यदि उस तरह निवृत्त होने योग्य उस रोगादि सबधी कर्मबंध न हो तो उस पर औषधादिका असर नही होता, अथवा औषधादि प्राप्त नही होते या सम्यक् औषधादि प्राप्त नहीं होते। अमक कर्मबंध किस प्रकारका है उसे तथारूप ज्ञानदृष्टिके बिना जानना कठिन है। इससे औषधादि व्यवदारकी प्रवत्तिका एकातसे निषेध नही किया जा सकता । अपनी देहके सवधमे कोई एक परम आत्मदष्टिवाला पुरुष उस तरह आचरण करे तो, अर्थात् वह औपधादिका ग्रहण न करे, तो वह योग्य है, परतू दूसरे सामान्य जीव उस तरह आचरण करने लगे तो वह एकातिक दृष्टिसे कितनी ही हानि कर डालते है। फिर उसमे भी अपने आश्रित जीवोके प्रति अथवा किसी दूसरे जोवके प्रति रोगादि कारणोमे वसा पचार करनेके व्यवहारमे प्रवृत्ति को जा सकती है, फिर भी उपचार आदि करनेमे उपेक्षा करे तो अनुकपा-मार्गको छोड़ देने जैसा हो जाता है। कोई जीव चाहे जैसा पीड़ित हो तो भी उसे दिलासा देने तथा औषधादि देनेके व्यवहारको छोड दिया जाये तो उसे आतंध्यानका हेतु होने जैसा हो जाता है। गृहस्थव्यवहारमे ऐसी एकातिक दृष्टि करनेसे बहुत विरोध उत्पन्न होते हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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