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________________ ३० वा वर्ष ६१५ ७८० बबई, जेठ सुदी ८, मगल, १९५३ जिसे किसीके भी प्रति राग, द्वेष नहीं रहा, उस महात्माको वारंवार नमस्कार । परम उपकारो, आत्मार्थी, सरलतादि गुणसपन्न श्री सोभाग, त्रबकभाईका लिखा एक पत्र आज मिला है । "आत्मसिद्धि" ग्रन्थके सक्षिप्त अर्थकी पुस्तक तथा कितने ही उपदेश-पत्रोकी प्रति यहाँ थी, उन्हे आज डाकसे भेजा है। दोनोमे मुमुक्षु जीवके लिये विचार करने योग्य अनेक प्रसग है। परमयोगी ऐसे श्री ऋषभदेव आदि पुरुष भी जिस देहको नहीं रख सके, उस देहमे एक विशेषता रही हुई है, वह यह है कि जब तक उसका सम्बन्ध रहे, तब तकमे जीवको असगता, निर्मोहता प्राप्त करके अबाध्य अनुभवस्वरूप ऐसे निजस्वरूपको जानकर, दूसरे सभी भावोंसे व्यावृत्त (मुक्त) हो जाना कि जिससे फिर जन्म-मरणका फेरा न रहे । उस देहको छोडते समय जितने अशमे असगता, निर्मोहता, यथार्थ समरसता रहती है, उतना ही मोक्षपद समीप हे ऐसा परम ज्ञानीपुरुषोका निश्चय है। ____ मन, वचन और कायाके योगसे जाने-अनजाने कुछ भी अपराध हुआ हो, उस सबकी विनयपूर्वक क्षमा मांगता हूँ, अति नम्रभावसे क्षमा माँगता हूँ। इस देहसे करने योग्य कार्य तो एक ही है कि किसीके प्रति राग अथवा किसीके प्रति किंचित्मात्र द्वेष न रहे । सर्वत्र समदशा रहे । यही कल्याणका मुख्य निश्चय है । यही विनती। श्री रायचदके नमस्कार प्राप्त हो । ७८१ बबई, जेठ वदी ६, रवि, १९५३ परमपुरुषदशावर्णन 'कोचसौ कनक जाकै, नोच सौ नरेसपद, मीचसी मिताई, गरुवाई जाकै गारसी। जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति, हहरसी हौस, पुद्गलछवि छारसी ॥ जालसौ जगबिलास, भालसौं भुवनवास, कालसी कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी। सीठसौ सुजसु जाने, बीठसौ वखत मान, ऐसी जाकी रीति ताही, वंदत बनारसी ॥' जो कचनको कीचडके समान जानता है, राजगद्दीको नीचपदके समान समझता है, किसीसे स्नेह करनेको मत्यके समान मानता है, वडप्पनको लीपनेके गारे जैसा समझता है, कीमिया आदि योगको जहरके समान गिनता है, सिद्धि आदि ऐश्वर्यको असाताके समान समझता है, जगतमे पूज्यता होने आदिकी लालसाको अनर्थक समान मानता है, पुद्गलकी मूर्तिरूप औदारिकादि कायाको राखके समान मानता है, जगतके भोगविलासको दुविधारूप जालके समान समझता है, गृहवासको भालेके समान मानता हे, कुटुम्बके कार्यको काल अर्थात् मृत्युके समान गिनता है, लोकमे लाज बढानेको इच्छाको मुसकी लारके समान समझता है कीतिकी इच्छाको नाक्के मेलके समान मानता है, और पुण्यके उदयको जो विष्टाके समान समझता है ऐसी जिसकी रीति हो उसे बनारसीदास वदन करते है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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