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________________ ५१८ श्रीमद राजचन्द्र वही प्राय सब जीवोमे देखनेमे आता है, और देहात होनेके प्रसंगपर भी उसका प्रावल्य देखनेमे आता है, ऐसा जानकर मृत्युके समीप आनेपर तथारूप परिणति करनेका विचार विचारवान पुरुष छोडकर, पहलेसे ही उस प्रकारसे रहता है । आप स्वयं बाह्य क्रियाके विधि-निषेधके आग्रहको विसर्जनवत् करके अथवा उसमे अन्तर परिणामसे उदासीन होकर, देह और तत्सबधी सबधका वारंवारका विक्षेप छोडकर, यथार्थ आत्मभावका विचार करना ध्यानगत करे तो वही सार्थक है । अतिम अवसरपर अनशनादि या संस्तरादिक या सलेखनादिक क्रियाएँ क्वचित् हो, या न हो तो भी जिस जीवको उपर्युक्त भाव ध्यानगत है, उसका जन्म सफल है, और वह क्रमसे नि श्रेयसको प्राप्त होता है । आपका, कितने ही कारणो से बाह्य क्रियादिके विधि-निषेधका विशेष ध्यान देखकर हमे खेद होता था कि इसमे काल व्यतीत होनेसे आत्मावस्था कितनी स्वस्थताका सेवन करती है, और क्या यथार्थ स्वरूपका विचार कर सकती है कि जिससे आपको उसका इतना अधिक परिचय खेदका हेतु नही लगता ? जिसमे सहजमात्र उपयोग दिया हो तो चल सकता है, उसमे 'जागृति' कालका लगभग बहुतसा भाग व्यतीत होने जैसा होता है, वह किसलिये और उसका क्या परिणाम ? वह क्यो आपके ध्यानमे नही आता ? इस विषयमे क्वचित् कुछ प्रेरणा करनेकी सम्भवत इच्छा हुई थी; परंतु आपकी तथारूप रुचि और स्थिति दिखायी न देनेसे प्रेरणा करते करते वृत्तिको संकुचित कर लिया था। आज भी आपके चित्तमे इस बातको अवकाश देने योग्य अवसर है । लोग मात्र विचारवान या सम्यग्दृष्टि समझें, इससे कल्याण नही है अथवा वाह्य-व्यवहारके अनेक विधि-निषेध के कर्तृत्व के माहात्म्य में कुछ कल्याण नही है, ऐसा हमे तो लगता है । यह कुछ एकान्तिक दृष्टिसे लिखा है अथवा अन्य कोई हेतु है, ऐसा विचार छोड़कर, जो कुछ उन वचनोसे अतर्मुखवृत्ति होनेकी प्रेरणा हो उसे करनेका विचार रखना, यही सुविचारदृष्टि है । लोकसमुदाय कुछ भला होनेवाला नही है, अथवा स्तुतिनिदाके प्रयत्नार्थ इस देहकी प्रवृत्ति विचारवान के लिये कर्तव्य नही है । अतर्मुखवृत्ति रहित बाह्यक्रिया के विधि - निषेधमे कुछ भी वास्तविक कल्याण नही है । गच्छादि भेदका निर्वाह करनेमे, नाना प्रकारके विकल्प सिद्ध करनेमे आत्माको आवृत करनेके बराबर है । अनेकान्तिक मार्ग भी सम्यग्, एकान्त निजपदकी प्राप्ति करानेके सिवाय दूसरे किसी अन्य हेतुसे उपकारी नही है, ऐसा जानकर लिखा है । वह मात्र अनुकम्पा बुद्धिसे, निराग्रहसे, निष्कपटतासे, निर्दभतासे और हितार्थ लिखा है, ऐसा यदि आप यथार्थ विचार करेंगे तो दृष्टिगोचर होगा, और वचनके ग्रहण अथवा प्रेरणा होनेका हेतु होगा । राळज, भादो सुदी८, १९५२ ७०३ कितने ही प्रश्नोका समाधान जाननेकी अभिलाषा रहती है यह स्वाभाविक है । "प्राय सभी मार्गोमे मनुष्यभवको मोक्षका एक साधन मानकर उसकी बहुत प्रशसा की है, और जीवको जिस तरह वह प्राप्त हो अर्थात् उसकी वृद्धि हो उस तरह बहुतसे मार्गोमे उपदेश किया मालूम होता है । जिनोक्त मागंमे वैसा उपदेश किया मालूम नही होता । वेदोक्त मार्गमे 'अपुत्रकी गति नही होती', इत्यादि कारणोसे तथा चार आश्रमोका क्रमादिसे विचार करनेसे मनुष्यकी वृद्धि हो ऐसा उपदेश किया हुआ दृष्टिगोचर होता है । जिनोक्त मार्गमे उससे विपरीत देखनेमे आता है, अर्थात् वैसा न करते हुए, जब भी जीव वैराग्य प्राप्त करे तो ससारका त्याग कर देना, ऐसा उपदेश देखनेमे आता है, इसलिये बहुतसे गृहस्थाश्रमको प्राप्त किये बिना त्यागी हो, और मनुष्यकी वृद्धि रुक जाये, क्योकि उनके अत्यागसे, जो कुछ उन्हे सतानोत्पत्तिका सभव रहता वह न हो और उससे वगके नाश होने जैसा हो, जिससे दुर्लभ मनुष्यभव, जिसे मोक्षसाधनरूप माना है, उसकी वृद्धि रुक जाती है, इसलिये जिनेंद्रका वैसा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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