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________________ २९ वॉ वर्ष ५१७ रमाणु भी अनतपर्यायात्मकत्व है, और कालके एक समयमे कुछ अनतपर्यायात्मकत्व नही है, क्योकि वह स्वयं ही वर्तमान एक पर्यायरूप है । एक पर्यायरूप होनेसे वह द्रव्यरूप नही ठहरता, तो फिर अस्तिकायरूप माननेका विकल्प भी सभवित नही है । (२) मूल अप्कायिक जीवोका स्वरूप बहुत सूक्ष्म होनेसे सामान्य ज्ञानसे उसका विशेषरूपसे ज्ञान होना कठिन है, तो भी 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ अभी प्रसिद्ध हुआ है, उसमे १४१ से १४३ पृष्ठ तक उसका कुछ स्वरूप समझाया है। उसका विचार कर सकें तो विचार कीजियेगा । (३) अग्नि अथवा दूसरे बलवान शस्त्रसे अप्कायिक मूल जीवोका नाश होता है, ऐसा समझमे आता है । यहाँसे बाष्प आदिरूप होकर जो पानी ऊँचे आकाशमे बादलरूपमे इकट्ठा होता है वह बाष्प आदिरूप होनेसे अचित् होने योग्य लगता है, परंतु बादलरूप होनेसे फिर सचित् हो जाने योग्य है । वह वर्षारूपसे जमीनपर गिरनेपर भी सचित् होता है। मिट्टी आदिके साथ मिलनेसे भी वह सचित् रह सकने योग्य है । सामान्यत' मिट्टी अग्नि जैसा बलवान शस्त्र नही है, अर्थात् वैसा हो तब भी सचित होना सम्भव है । (४) बीज जब तक बोनेसे उगनेकी योग्यतावाला है तब तक निर्जीव नही होता, सजीव ही कहा जाता है | अमुक अवधिके बाद अर्थात् सामान्यत बीज ( अन्न आदिका) तीन वर्ष तक सजीव रह सकता है, इससे बीचमे उसमेसे जीव चला भी जाये, परतु उस अवधिके बीत जानेके बाद उसे निर्जीव अर्थात् निर्बीज हो जाने योग्य कहा है । कदाचित् उसका आकार बीज जैसा हो, परतु वह बोनेसे उगनेकी योग्यतासे रहित हो जाता है । सर्व बीजोकी अवधि तीन वर्षको सम्भवित नही है, कुछ बीजोकी सम्भव है । (५) फ्रेंच विद्वान द्वारा खोजे गये यत्रके व्योरेका समाचारपत्र भेजा उसे पढा है । उसमे उसका नाम जो ‘आत्मा देखनेका यंत्र' रखा है, वह यथार्थ नही है । ऐसे किसी भी प्रकारके दर्शनकी व्याख्या आत्माका समावेश होना योग्य नही है आपने भी उसे आत्मा देखनेका यत्र नही समझा है, ऐसा जानते हैं, तथापि कार्मण या तैजस शरीर दिखायी देने योग्य है या कुछ दूसरा भास होना योग्य है, उसे जानने । की आपकी इच्छा मालूम होती है । कार्मण या तैजस शरीर भी उस तरह दिखायी देने योग्य नही है । परतु चक्षु, प्रकाश, वह यत्र, मरनेवालेकी देह और उसकी छाया अथवा किसी आभासविशेषसे वैसा दिखायी देना सम्भव है । उस यत्रके विषयमे अधिक विवरण प्रसिद्ध होनेपर यह बात प्राय पूर्वापर जाननेमे आयेगी। हवाके परमाणुओंके दिखायी देनेके विषयमे भी उनके लिखनेकी या देखे हुए स्वरूपकी व्याख्या करनेमे कुछ पर्यायातर लगता है । हवासे गतिमान कोई परमाणुस्कध ( व्यावहारिक परमाणु, कुछ विशेष प्रयोगसे दृष्टिगोचर हो सकने योग्य हो वह) दृष्टिगोचर होना सभव है । अभी उनकी कृति अधिक प्रसिद्ध होने पर विशेषरूपसे समाधान करना योग्य लगता है । ७०२ राळज, श्रावण वदी १४, रवि, १९५२ विचारवान पुरुष तो कैवल्यदशा होने तक मृत्युको नित्य समीप हो समझकर प्रवृत्ति करते हैं । भाई श्री अनुपचद मलुकचदके प्रति, श्री भृगुकच्छ । प्राय. किये हुए कर्मोकी रहस्यभूत मति मृत्युके समय रहती है । एक तो क्वचित् मुश्किलसे परिचित परमार्थभाव, और दूसरा नित्य परिचित निजकल्पना आदि भावसे रूढिधर्मके ग्रहण करनेका भाव ऐसे दो प्रकारके भाव हो सकते है । सद्विचारसे यथार्थ आत्मदृष्टि या वास्तविक उदासीनता तो सवं जीवसमूहको देखते हुए किसी विरल जीवको क्वचित् हो होती है, और दूसरा भाव अनादिसे परिचित है,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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