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________________ २९ वो वर्ष ५१९ अभिप्राय क्यो हो?" उसे जानने आदि विचारका प्रश्न लिखा है, उसके समाधानका विचार करनेके लिये यहाँ लिखा है। ___ लौकिक दृष्टि और अलौकिक (लोकोत्तर) दृष्टिसे बडा भेद है, अथवा ये दोनो दृष्टियां परस्पर विरुद्ध स्वभाववाली है । लौकिक दृष्टिमे व्यवहार (सासारिक कारणो) की मुख्यता है और अलौकिक दधिमे परमार्थकी मुख्यता है । इसलिये अलौकिक दृष्टिको लौकिक दृष्टिके फलके साथ प्रायः (बहुत करके) मिलाना योग्य नही है। जैन और अन्य सभी मार्गोंमे प्राय मनुष्यदेहका विशेष माहात्म्य कहा है, अर्थात् मोक्षसाधनका कारणरूप होनेसे उसे चितामणि जैसा कहा है, वह सत्य है। परतु यदि उससे मोक्षसाधन किया तो ही उसका यह माहात्म्य है, नही तो वास्तविक दृष्टिसे पशुकी देह जितनी भी उसकी कीमत मालूम नही होती। मनुष्यादि वशकी वृद्धि करना यह विचार मुख्यतः लौकिक दृष्टिका है, परतु उस देहको पाकर अवश्य मोक्षसाधन करना, अथवा उस साधनका निश्चय करना, यह विचार मुख्यतः अलोकिक दृष्टिका है। अलौकिकदष्टिमे मनुष्यादि वशकी वृद्धि करना, ऐसा नहीं कहा है इससे मनुष्यादिका नाश करना ऐसा उसमे आशय रहता है, यह नही समझना चाहिये । लौकिक दृष्टिमे तो युद्धादि अनेक प्रसगोमे हजारो मनुष्योके नाश हो जानेका समय आता है, और उसमे बहुतसे वशरहित हो जाते है, परतु परमार्थ अर्थात अलौकिक दृष्टिमे वैसे कार्य नहीं होते कि जिससे प्राय. वैसा होनेका समय आवे, अर्थात यहाँ अलौकिक दष्टिसे निर्वैरता, अविरोध, मनुष्य आदि प्राणियोकी रक्षा और उनके वशका रहना, यह सहज ही बन जाता है, और मनुष्य आदि वशकी वृद्धि करनेका जिसका हेतु है, ऐसी लौकिक दृष्टि इसके विपरीत वैर, विरोध, मनुष्य आदि प्राणियोका नाश और वशहीनता करनेवाली होती है। अलौकिक दृष्टिको पाकर अथवा अलौकिक दृष्टिके प्रभावसे कोई भी मनुष्य छोटी उमरमे त्यागी हो जाये तो उससे जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण न किया हो उसके वशका, अथवा जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण किया हो और पत्रोत्पत्ति न हई हो, उसके वशका नाश होनेका समय आये, और उतने मनुष्योका जन्म कम हो. जिससे मोक्षसाधनकी हेतुभूत मनुष्यदेहकी प्राप्तिके रोकने जैसा हो जाये, ऐसा लौकिक दृष्टिसे योग्य लगता है, परन्तु परमार्थदृष्टिसे वह प्राय कल्पना मात्र लगता है। किसीने भो पूर्वकालमें परमार्थमार्गका आराधन करके यहाँ मनुष्यभव प्राप्त किया हो, उसे छोटी उमरसे ही त्याग-वैराग्य तीव्रतासे उदयमे आते है, वैसे मनुष्यको सतानको उत्पत्ति होनेके पश्चात् त्याग करनेका उपदेश करना, अथवा आश्रमके अनुक्रममे रखना, यह यथार्थ प्रतीत नहीं होता, क्योकि मनुष्यदेह तो बाह्य दष्टिसे अथवा अपेक्षासे मोक्षसाधनरूप है, और यथार्थ त्याग-वैराग्य तो मूलत मोक्षसाधनरूप है. और वैसे कारण प्राप्त करनेसे मनुष्यदेहकी मोक्षसाधनता सिद्ध होती थी, वे कारण प्राप्त होनेपर उस देहसे भोग आदिमे पडनेका कहना, इसे मनुष्यदेहको मोक्षसाधनरूप करनेके समान कहा जाय या ससार साधनरूप करनेके समान कहा जाय यह विचारणीय है। वेदोक्त मार्गमे जो चार आश्रमोकी व्यवस्था है वह एकान्तरूपसे नही है। वामदेव, शुकदेव, जडभरतजी इत्यादि आश्रमके क्रमके विना त्यागवृत्तिसे विचरे है। जिनसे वैसा होना अशक्य हो, वे परिणाममे यथार्थ त्याग करनेका लक्ष्य रखकर आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करें तो यह सामान्यत ठोक है, ऐसा कहा जा सकता है। आयुकी ऐसी क्षणभगुरता है कि वैसा क्रम भी किसी विरलेको हो प्राप्त होनेका अवसर आये । कदाचित् वैसी आयु प्राप्त हुई हो तो भी वैसी वृत्तिसे अर्थात् वैसे परिणामसे यथार्थ त्याग हो ऐसा लक्ष्य रखकर प्रवृत्ति करना तो किसीसे हो बन सकता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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