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________________ श्रीमद राजचन्द्र आसोज मासी पूर्णता तक या सवत् १९५३ की कार्तिक सुदी पूर्णिमा पर्यन्त श्री लल्लुजीके पास उस व्रतको ग्रहण करते हुए आज्ञाका अतिक्रम नही है । ५१० श्री माणेकचदका लिखा हुआ पत्र मिला है । सुन्दरलालके देहत्याग सम्बन्धी खुद बताकर उसके आधारपर ससारकी अशरणतादि लिखी है, वह यथार्थ है; वैसी परिणति अखड रहे तभी जीव उत्कृष्ट वैराग्यको पाकर स्वस्वरूपज्ञानको प्राप्त करता है, कभी कभी किसी निमित्तसे वैसे परिणाम होते है परन्तु उनमे विघ्नरूप सग तथा प्रसगमे जीवका वास होने से वे परिणाम अखड नही रहते, और संसाराभिरुचि हो जाती है, वैसी अखड परिणतिके इच्छुक मुमुक्षुको उसके लिये नित्य सत्समागमका आश्रय करनेकी परम पुरुष शिक्षा दी है । जब तक जीवको वह योग प्राप्त न हो तब तक कुछ भी उस वैराग्यके आधारका हेतु तथा अप्रतिकूल निमित्तरूप मुमुक्षुजनका समागम तथा सत्शास्त्रका परिचय कर्तव्य हे । अन्य सग तथा प्रसगसे दूर रहनेकी वारवार स्मृति रखनी चाहिये, और वह स्मृति प्रवर्तनरूप करनी चाहिये । वारवार जीव इस वातको भूल जाता है, और इस कारण से इच्छित साधन तथा परिणतिको प्राप्त नही होता । श्री सुन्दरलालकी गतिविषयक प्रश्न पढा है । इस प्रश्नको अभी शात करना योग्य है, तथा तद्विषयक विकल्प करना योग्य भी नही है । बबई, द्वितीय जेठ वदी ६, गुरु, १९५२ 'वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे निर्वाणको प्राप्ति नही होती' ऐसा जिनागममे कहा है, और वेदात आदि ऐसा कहते हैं कि ( इस कालमे इस क्षेत्रसे) निर्वाणकी प्राप्ति होती है। इसके लिये श्री डुगरको जो परमार्थ भासित होता हो, सो लिखियेगा । आप और लहेराभाई भी इस विषयमे यदि कुछ लिखना चाहे तो लिखियेगा | ६९१ مع वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे निर्वाणप्राप्ति नही होती, इसके सिवाय अन्य कितने ही भावोका भी जिनागममे तथा तदाश्रित आचार्यरचित शास्त्रमे विच्छेद कहा है । केवलज्ञान, मन पर्यायज्ञान, अवधिज्ञान, पूर्वज्ञान, यथाख्यात चारित्र, सूक्ष्मसपराय चारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, क्षायिक समकित और पुलाकfor इन भावोका मुख्यतः विच्छेद कहा है। श्री डुगरको उस उसका जो परमार्थ भासित होता हो सो लिखियेगा । आपको और लहेराभाईको इस विषयमे यदि कुछ लिखनेकी इच्छा हो सो लिखियेगा | वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे आत्मार्थकी कौन कौनसी मुख्य भूमिका उत्कृष्ट अधिकारीको प्राप्त हो सकती है, और उसकी प्राप्तिका मार्ग क्या है ? वह भी श्री डुगरसे लिखवाया जाये तो लिखियेगा । तथा इस विषय मे यदि आपको तथा लहेराभाईको कुछ लिखनेकी इच्छा हो जाये तो लिखियेगा । उपर्युक्त प्रश्नोका उत्तर अभी न लिखा जा सके तो उन प्रश्नोके परमार्थका विचार करनेका ध्यान रखियेगा । ६९२ ववई, द्वितीय जेठ वदी, १९५२ दुर्लभ मनुष्यदेह भी पूर्वकालमे अनतवार प्राप्त होनेपर भी कुछ भी सफलता नही हुई, परन्तु इस मनुष्यदेहकी कृतार्थता है कि जिस मनुष्यदेहमे इस जीवने ज्ञानी पुरुपको पहचाना, तथा उस महाभाग्यका आश्रय किया । जिस पुरुषके आश्रयसे अनेक प्रकारके मिथ्या आग्रह आदिकी मंदता हुई, उस पुरुषके आश्रयपूर्वक यह देह छूटे, यही सार्थकता है । जन्मजरामरणादिका नाश करनेवाला आत्मज्ञान जिसमे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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