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________________ २९ वा वर्ष विद्यमान है, उस पुरुषका आश्रय ही जीवके जन्मजरामरणादिका नाश कर सकता है, 'क्योकि वह यथासम्भव उपाय है । संयोग-सम्बन्धसे इस देहके प्रति इस जीवका जो प्रारब्ध होगा उसके व्यतीत हो जानेपर इस देहका प्रसग निवृत्त होगा। इसका चाहे जब वियोग निश्चित है, परन्तु आश्रयपूर्वक देह छूटे, यही जन्म सार्थक है, कि जिस आश्रयको पाकर जीव इस भवमे अथवा भविष्यमे थोडे कालमे भी स्वस्वरूपमे स्थिति करे। आप तथा श्री मुनि प्रसगोपात्त खुशालदासके यहाँ जानेका रखियेगा । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिको यथाशक्ति धारण करनेकी उनमे सम्भावना दिखायी दे तो मुनिको वैसा करनेमे प्रतिबध नही है। श्री सद्गुरुने कहा है ऐसे निग्रंथमार्गका सदैव आश्रय रहे। मैं देहादिस्वरूप नही हूँ, और देह, स्त्री, पुत्र आदि कोई भी मेरे नही हैं, शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी ऐसा मै आत्मा हूँ, इस प्रकार आत्मभावना करते हुए रागद्वेषका क्षय होता है। ६९३ . बंबई, आषाढ सुदी २, रवि, १९५२ जिसकी मृत्युके साथ मित्रता हो, अथवा जो मृत्युसे भागकर छुट सकता हो, अथवा मैं नही ही मरूँ ऐसा जिसे निश्चय हो, वह भले सुखसे सोये। -श्री तीर्थंकर-छ जीवनिकाय अध्ययन । ज्ञानमार्ग दुराराध्य है। परमावगाढदशा पानेसे पहले उस मार्गमे पतनके बहत स्थान है। सन्देश विकल्प, स्वच्छदता, अतिपरिणामिता इत्यादि कारण वारवार जीवके लिये उस मार्गसे पतनके हेत होते हैं, अथवा ऊर्श्वभूमिका प्राप्त होने नही देते। क्रियामार्गमे असअभिमान, व्यवहार-आग्रह, सिद्धिमोह, पूजासत्कारादि योग और दैहिक क्रियामे आत्मनिष्ठा आदि दोषोका सम्भव रहा है। किसी एक महात्माको छोडकर बहुतमे विचारवान जीवोने इन्ही कारणोंसे भक्तिमार्गका आश्रय लिया है, और आज्ञाश्रितता अथवा परमपुरुष सद्गुरुमे सर्वार्पण-स्वाधीनताको शिरसावध माना है, और वैसी ही प्रवृत्ति की है। तथापि वैसा योग प्राप्त होना चाहिये, नही तो चिंतामणि जैसा जिसका एक समय है ऐसी मनुष्यदेह उलटे परिभ्रमणवृद्धिका हेतु होती है। बबई, आषाढ सुदी २, रवि, १९५२ आत्मार्थी श्री सोभागके प्रति, श्री सायला। श्री डगरके अभिप्रायपूर्वक आपका लिखा हुआ पन तथा श्री लहेराभाईका लिखा हुआ पत्र मिला है। श्री डगरके अभिप्रायपूर्वक श्री सोभागने लिखा है कि निश्चय और व्यवहारको अपेक्षासे जिनागम तथा वेदात आदि दर्शनमे वर्तमानकालमे इस क्षेत्रसे मोक्षकी ना और हाँ कही होनेका सम्भव है, यह विचार विशेष अपेक्षासे यथार्थ दिखायी देता है; और लहेराभाईने लिखा है कि वर्तमानकालमे सघयणादिके हीन होनेके कारणसे केवलज्ञानका जो निषेध किया है, वह भी सापेक्ष है। आगे चलकर विशेषार्थ ध्यानगत होनेके लिये पिछले पत्रके प्रश्नको कुछ स्पष्टतासे लिखते हैं .वर्तमानमे जिनागमसे जैसा केवलज्ञानका अर्थ वर्तमान जनसमुदायमे चलता है, वैसा ही उसका अर्थ आपको
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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