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________________ २९ व वर्ष ५०९ अनंत जन्ममरणका और प्रत्यक्ष खेदका हेतु है, दुःख और क्लेशका बीज है, उसे शात कर, उसका क्षय कर । हे जीव ! इसके बिना अन्य कोई हितकारी उपाय नही है, इत्यादि भावितात्मतासे वैराग्यको शुद्ध और निश्चल करता है । जो कोई जीव यथार्थ विचारसे देखता है, उसे इसी प्रकारसे भासित होता है । " इस जीवको देहसबध होकर मृत्यु न होती तो इस ससारके सिवाय अन्यत्र अपनी वृत्ति लगानेका अभिप्राय न होता । मुख्यतः मृत्युके भयने परमार्थरूप दूसरे स्थानमे वृत्तिको प्रेरित किया है, वह भो किसी विरले जीवको प्रेरित हुई है। बहुतसे जीवोको तो बाह्य निमित्तसे मृत्युभयके कारण बाह्य क्षणिक वैराग्य. प्राप्त होकर विशेष कार्यकारी हुए बिना नाश पाता है । मात्र किसी एक विचारवान अथवा सुलभबोधी या लघुकर्मी जीवको उस भयसे अविनाशी नि श्रेयस पदके प्रति वृत्ति होती है । मृत्युभय होता तो भी यदि वह मृत्यु वृद्धावस्थामे नियमित प्राप्त होती तो भी जितने पूर्वकालमे विचारवान हुए है, 'उतने न होते, अर्थात् वृद्धावस्था तक तो मृत्युका भय नही है ऐसा देखकर, प्रमादसहित प्रवृत्ति करते । मृत्युका अवश्य आना देखकर तथा अनियमितरूपसे उसका आना देखकर, उस प्रसगके प्राप्त होनेपर स्वजनादि सबसे अरक्षणता देखकर, परमार्थका विचार करनेमे अप्रमत्तता ही हितकारी प्रतीत हुई, और सर्वसगकी अहितकारिता प्रतीत हुई। विचारवान पुरुषोका यह निश्चय नि सदेह सत्य है, त्रिकाल सत्य है । मूर्च्छाभावका खेद छोडकर असगभावप्रत्ययी खेद करना विचारवानको कर्तव्य है । यदि इस ससारमे ऐसे प्रसगोका सम्भव न होता, अपनेको या दूसरोको वैसे प्रसगको अप्राप्ति दिखायी देती होती, अशरणता आदि न होते तो पचविषयके सुख-साधनको जिन्हे प्राय कुछ भी न्यूनता न थी, ऐसे श्री ऋषभदेव आदि परमपुरुष, और भरतादि चक्रवर्ती आदि उसका क्यो त्याग करते ? एकात असगताका सेवन वे क्यो करते ? हे आर्य माणेकचंद आदि । यथार्थ विचारकी न्यूनताके कारण पुत्र आदि भावकी कल्पना और मूर्च्छा के कारण आपको कुछ भी खेद विशेष प्राप्त होना सम्भव है, तो भी उस खेदका दोनोंके लिये कुछ भी हितकारी फल न होनेसे, मात्र असंग विचारके बिना किसी दूसरे उपायसे हितकारिता नही है, ऐसा विचारकर, वर्तमान खेदको यथाशक्ति विचारसे, ज्ञानी पुरुपोके वचनामृतसे तथा साधु पुरुषके आश्रय, समागम आदिसे और विरतिसे उपशात करना ही कर्तव्य है । ६९० ॐ बंबई, द्वितीय जेठ सुदी २, शनि, १९५२ मुमुक्षु श्री छोटालालके प्रति, श्री स्तभंतीर्थं । पत्र मिला है । जिस हेतुसे अर्थात् शारीरिक रोग विशेषसे आपके नियममे आगार था, वह रोग विशेष उदयमे है, इसलिये उस आगारका ग्रहण करते हुए आज्ञाका भग अथवा अतिक्रम नही होता, क्योकि आपके नियमका प्रारम्भ तथाप्रकारसे हुआ था । यही कारणविशेष होनेपर भी यदि अपनी इच्छासे उस आगारका ग्रहण करना हो तो आज्ञाका भग या अतिक्रम होता है। सर्वं प्रकारके आरम्भ तथा परिग्रहके सम्बन्धके मूलका छेदन करनेके लिये समर्थ ऐसा ब्रह्मचर्य परम साधन है । यावत् जीवनपर्यन्त उस व्रतको ग्रहण करने का आपका निश्चय रहता है, ऐसा जानकर प्रसन्न होना योग्य है। अगले समागमके आश्रयमे उस प्रकारके विचारको निवेदित करना रखकर मवत् १९५२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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