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________________ ४८२ श्रीमद् राजन्द्र ६१९ परमार्थनैष्ठिक श्री सोभागके प्रति, श्री सायला । बंबई, आषाढ वदी १४, रवि, १९५१ नमो वीतरागाय सर्वं प्रतिबंध से मुक्त हुए बिना सर्व दुःखसे मुक्त होना संभव नहीं है । यहाँसे वाणिया जाते हुए सायला ठहरनेके सबंध मे आपकी विशेष इच्छा मालूम हुई है, और इस विषयमे कोई भी रास्ता निकले तो ठीक, ऐसा कुछ चित्तमे रहता था, तथापि एक कारणका विचार करते हुए दूसरा कारण बाधित होता हो वहाँ क्या करना योग्य है ? उसका विचार करते हुए जब कोई वैसा मार्ग देखनेमे नही आता तब जो सहजमे बन आये उसे करनेकी परिणति रहती है, अथवा आखिर कोई उपाय न चले तो बलवान कारण बाधित न हो वैसा प्रवर्तन होता है । बहुत समयके व्यावहारिक प्रसगके कटाले से थोडा समय भी किसी तथारूप क्षेत्रमे निवृत्तिसे रहा जाये तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहा करता था । तथा यहाँ अधिक समय स्थिति होनेसे जो देहके जन्मके निमित्त कारण हैं, ऐसे मातापितादिके वचनके लिये, चित्तकीं प्रियताके अक्षोभके लिये, तथा कुछ दूसरोके चित्तकी अनुपेक्षाके लिये भी थोडे दिन लिये ववाणिया जानेका विचार उत्पन्न हुआ था । उन दोनो प्रकारके लिये कब योग हो तो अच्छा, ऐसा विचार करनेसे कोई यथायोग्य समाधान नही होता था । तत्सवधी विचारकी सहज हुई विशेषतासे अभी जो कुछ विचारकी अल्पता स्थिर हुई, उसे आपको सूचित किया था । सर्व प्रकारके असंगलक्ष्य के विचारको यहाँसे अप्रसग समझकर, दूर रखकर, अल्पकालकी अल्प असगताका अभी कुछ विचार रखा है, वह भी सहज स्वभावसे उदयानुसार हुआ है । उसमे किन्ही कारणोका परस्पर विरोध न होनेके लिये इस प्रकार विचार आता है - यहाँसे श्रावण सुदीमे निवृत्ति हो तो इस बार बीचमे कही भी न ठहरकर सोधा ववाणिया जाना । वहाँसे शक्य हो तो श्रावण वदी ११ को वापिस लौटना और भादो सुदी १० के आसपास किसी निवृत्तिक्षेत्रमें स्थिति हो वैसे यथाशक्ति उदयको उपराम जैसा रखकर प्रवृत्ति करना । यद्यपि विशेष निवृत्ति, उदयका स्वरूप देखते हुए, प्राप्त होनी कठिन मालूम होती है, तो भी सामान्यतः जाना जा सके उतनी प्रवृत्तिमे न आया जाये तो अच्छा ऐसा लगता है । और इस बातपर विचार करते हुए यहाँसे जाते समय रुकनेका विचार छोड देनेसे सुलभ होगा ऐसा लगता है । एक भी प्रसगमे प्रवृत्ति करते हुए तथा लिखते हुए प्रायः जो अक्रियपरिणति रहती है, उस परिणतिके कारण अभी ठीक तरहसे सूचित नही किया जा सकता, तो भी आपकी जानकारीके लिये मुझसे यहाँ जो कुछ सूचित किया जा सका उसे सूचित किया है। यही विनती । श्री डुगर तथा लहेराभाईको यथायोग्य । सहजात्मस्वरूप यथायोग्य । ६२० बबई, आषाढ वदी ३०, सोम, १९५१ जन्म से जिन्हे मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान थे और आत्मोपयोगी वैराग्यदशा थी, अल्पकालमे भोगकर्म क्षीण करके सयमको ग्रहण करते हुए मन पर्याय नामके ज्ञानको जो प्राप्त हुए थे, ऐसे श्रीमद् महावोरस्वामी भी वारह वर्ष और साढ़े छ मास तक मौन रहकर विचरते रहे। इस प्रकारका उनका प्रवर्तन, उस उपदेशमार्गका प्रवर्तन करते हुए किसी भी जीवको अत्यंतरूपसे विचार करके प्रवृत्ति करना योग्य हे, ऐसी अखड शिक्षाका प्रतिबोध करता है । तथा जिनेंद्र जैसोने जिस प्रतिबन्धकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न किया, उस प्रतिवन्धमे अजागृत रहने योग्य कोई भी जीव नही है ऐसा बताया है, तथा अनंत 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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