SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 596
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ वॉ वर्ष ४८३ आत्मार्थका उस प्रवर्तनसे बोध किया है । जिस प्रकारके प्रति विचारकी विशेष स्थिरता रहती है, रखना योग्य है । जिस प्रकारका पूर्व प्रारब्ध भोगनेसे निवृत्त होना योग्य है, उस प्रकारका प्रारब्ध उदासीनतासे वेदन करना योग्य है, जिससे उस प्रकारके प्रति प्रवृत्ति करते हुए जो कोई प्रसग प्राप्त होता है, उस उस प्रसगमे जागृत उपयोग न हो, तो जीवको समाधिविराधना होनेमे देर नही लगती। इसलिये सर्व संगभावको मूलरूपसे परिणामी करके भोगे विना न छूट सके वैसे प्रसंग के प्रति प्रवृत्ति होने देना योग्य है, तो भी उस प्रकारकी अपेक्षा जिससे सर्वांश असगता उत्पन्न हो उस प्रकारका सेवन करना योग्य है । कुछ समय से सहजप्रवृत्ति और उदीरणप्रवृत्ति, इस भेदसे प्रवृत्ति रहती है । मुख्यतः सहजप्रवृत्ति रहती है । सहजप्रवृत्ति अर्थात् जो प्रारब्धोदयसे उत्पन्न होती हो, परन्तु जिसमे कर्तव्य परिणाम नही है । दूसरी उदीरणप्रवृत्ति वह है जो परार्थ आदिके योगसे करनी पडती है। अभी दूसरी प्रवृत्ति होनेमे आत्मा सकुचित होता है, क्योकि अपूर्व समाधियोगको उस कारणसे भी प्रतिवध होता है, ऐसा सुना था तथा जाना था, और अभी वैसा स्पष्टरूपसे वेदन किया है। उन उन कारणोसे अधिक समागममे आनेका, पत्रादिसे कुछ भी प्रश्नोत्तरादि लिखनेका तथा दूसरे प्रकारसे परमार्थ आदिके लिखने-करने का भी मद होनेके पर्यायका आत्मा सेवन करता है । ऐसे पर्यायका सेवन किये बिना अपूर्व ममाधिकी हानिका सम्भव था । ऐसा होने पर भी यथायोग्य मंद प्रवृत्ति नही हुई । यहाँसे श्रावण सुदी ५-६ को निकलना संभव है, परन्तु यहांसे जाते समय समागमका योग हो सकने योग्य नही है । और हमारे जानेके प्रसगके विषयमे अभी आपके लिये किसी दूसरेको भी बतानेका विशेष कारण नही है, क्योकि जाते समय समागम नही करनेके सम्बन्धमे उन्हे कुछ सशय प्राप्त होनेका सम्भव हो, जो न हो तो अच्छा । यही विनती । ६२१ बम्बई, आषाढ वदी ३०, सोम, १९५१ आपके तथा दूसरे किन्ही सत्समागमकी निष्ठावाले भाइयोको हमारे समागमकी अभिलाषा रहती है, यह बात ध्यानमे है, परन्तु अमुक कारणो से इस विषयका विचार करते हुए प्रवृत्ति नही होती, जिन कारणोको बताते हुए भी चित्तको क्षोभ होता है । यद्यपि उस विपयमे कुछ भी स्पष्टतासे लिखना बन पाया हो तो पत्र तथा समागमादिकी प्रतीक्षा करानेकी और उसमे अनिश्चितता होती रहने से हमारी आरसे जो कुछ क्लेश प्राप्त होने देनेका होता है उसके होनेका सम्भव कम हो, परन्तु उस सम्बन्धमे स्पष्टतासे लिखते हुए भी चित्त उपशात हुआ करता है, इसलिये जो कुछ सहजमे हो उसे होने देना योग्य भासित होता है । ववाणियासे लौटते समय प्राय समागमका योग होगा । प्रायः चित्तमे ऐसा रहा करता है कि अभी अधिक समागम भी कर सकने योग्य दशा नही है । प्रथमसे इस प्रकारका विचार रहा करता था, और वह विचार अधिक श्रेयस्कर लगता था, परन्तु उदयवशात् कितने हो भाइयोका समागम होनेका प्रसग हुआ, जिसे एक प्रकारसे प्रतिवन्ध होने जैसा समझा था, और अभी कुछ भी वैसा हुआ है, ऐसा लगता है । वर्तमान आत्मदशा देखते हुए उतना प्रतिबन्ध होने देने योग्य अधिकार मुझे सम्भव नही है । यहाँ कुछ प्रसग स्पष्टार्थं वताना योग्य है । इस आत्मामे गुणकी विशेष अभिव्यक्ति जानकर आप इत्यादि किन्ही मुमुक्षुभाइयो को भक्ति रहती हो तो भी उससे उस भक्तिकी योग्यता मुझमे सम्भव है ऐसा समझने की मेरी योग्यता नही है, क्योंकि वहुत विचार करते हुए वर्तमानमे तो वैसा सम्भव रहता है, और उस कारणसे समागमसे कुछ समय दूर रहनेका चित्त रहा करता है, तथा पत्रादि द्वारा प्रतिबन्धकी भी अनिच्छा रहा करती है। इस बातपर यथा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy