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________________ २८ वा वर्ष ४८१ तथा श्री डुगरको विशेष विचार कर्तव्य है। अन्य दर्शनमे जिस प्रकारसे केवलज्ञानादिका स्वरूप कहा है, उसमे और जैनदर्शनमे उस विषयका जो स्वरूप कहा है, उनमे कितना ही मुख्य भेद देखनेमे आता है, उन सबका विचार होकर समाधान हो तो आत्माको कल्याणके अगभूत है, इसलिये इस विषयपर अधिक विचार हो तो अच्छा है। 'अस्ति' इस पदसे लेकर सर्व भाव आत्माके लिये विचारणीय हैं। उसमे जो स्वस्वरूपकी प्राप्तिका हेतु है, वह मुख्यतः विचारणीय है, और उस विचारके लिये अन्य पदार्थके विचारकी भी अपेक्षा रहती है, उसके लिये वह भी विचारणीय है। परस्पर दर्शनोमे बडा भेद देखनेमे आता है। उन सबकी तुलना करके अमुक दर्शन सच्चा है ऐसा निर्धार सभी मुमुक्षुओंसे होना दुष्कर है, क्योकि वह तुलना करनेकी क्षयोपशमशक्ति किसी ही जीवमे होती है। फिर एक दर्शन सर्वांशमे सत्य है और दूसरे दर्शन सर्वांशमे असत्य है ऐसा विचारमे सिद्ध हो, तो दूसरे दर्शनकी प्रवृत्ति करनेवालेकी दशा आदि विचारणीय है, क्योकि जिसके वैराग्य-उपशम बलवान हैं, उसने सर्वथा असत्यका निरूपण क्यो किया होगा ? इत्यादि विचारणीय है। परन्तु सब जीवोसे यह विचार होना दुष्कर है। और यह विचार कार्यकारी भी है, करने योग्य है। परन्तु वह किसी माहात्म्यवानको होना योग्य है। तब बाकी जो मुमुक्षुजीव हैं, उन्हे इस सम्बन्धमे क्या करना योग्य है ? यह भी विचारणीय है। सर्व प्रकारके सर्वांग समाधानके, बिना सर्व कर्मसे मुक्त होना अशक्य हे, यह विचार हमारे चित्तमे रहा करता है, और सर्व प्रकारका समाधान होनेके लिये अनंतकाल पुरुषार्थ करना पडता हो तो प्राय कोई जीव मुक्त नही हो सकता। इसलिये यह मालूम होता है कि अल्पकालमे उस सर्व प्रकारके समाधानका उपाय होना योग्य है, जिससे मुमुक्षुजीवको निराशाका कारण-भी नही है। श्रावण सुदी ५-६ के बाद यहाँसे निवृत्ति हो सके ऐसा मालूम होता है, परन्तु यहाँसे जाते समय बीचमे रुकना योग्य है या नही? यह अभी तक विचारमे नही आ सका है। कदाचित् जाते या लौटते समय बीचमे रुकना हो सके, तो वह किस क्षेत्रमे हो सके, यह अभी स्पष्ट विचारमे नही आता । जहाँ क्षेत्रस्पर्शना होगो वहाँ स्थिति होगी। आ० स्व० प्रणाम। बबई, आषाढ वदी ११, गुरु, १९५१ परमार्थनैष्ठिकादि गुणसम्पन्न श्री सोभागके प्रति, पत्र मिला है। केवलज्ञानादिके प्रश्नोत्तरका आपको तथा श्री डुंगर एवं लहेराभाईको यथाशक्ति विचार कर्तव्य है। जिस विचारवान पुरुषकी दृष्टिमे ससारका स्वरूप नित्य प्रति क्लेशस्वरूप भासमान होता हो, सासारिक भोगोपभोगमे जिसे विरसता जैसा रहता हो, उस विचारवानको दूसरी तरफ लोकव्यवहारादि, व्यापारादिका उदय रहता हो, तो वह उदय प्रतिवध इन्द्रियसुखके लिये नही परन्तु आत्महितके लिये दूर करना हो, तो दूर कर सकनेके क्या उपाय होने चाहिये? इस सम्बन्धमे कुछ सूचित करना हो तो कीजियेगा। यही विनती। आ० स्व० यथा०
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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