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________________ ४०८ श्रीमद राजचन्द्र को बाधकारी होती हो, तो वहाँ उस आज्ञाको गौण करके-उसका निषेध करके श्री तीर्थकरने दूसरी आज्ञा कही है। जिसने मवविरति की है ऐसे मुनिको सर्वविरति करते समयके प्रसगमे "सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि, सव्वं अदिन्नादाणं पच्चक्खामि, सव्वं मेहण पच्चक्खामि, सव्वं परिगहं पच्चक्खामि," इस उद्देश्यके वचनोका उच्चारण करनेके लिये कहा है, अर्थात् 'सर्वप्राणातिपातसे मै निवृत्त होता है', 'सर्व प्रकारके मृपावादमे मै निवृत्त होता हूँ', 'सर्व प्रकारके अदत्तादानसे मै निवृत्त होता हूँ', 'सर्व प्रकारके मैथुनसे निवृत्त होता हूँ', और 'सर्व प्रकारके परिग्रहसे निवृत्त होता हूँ।' (सर्व प्रकारके रात्रिभोजनमे तथा दूसरे वैसे वैसे कारणोसे निवृत्त होता हूँ, इस प्रकार उसके साथ बहुतसे त्यागके कारण जानना ।) ऐसे जो वचन कहे है, वे सर्वविरतिकी भूमिकाके लक्षणसे कहे है । तथापि उन पाँच महाव्रतोमे मैथुनत्यागके सिवायके चार महानतोमे भगवानने फिर दूसरी आज्ञा की है कि जो आज्ञा प्रत्यक्षतः तो महाव्रतको बाधकारी लगती है, परन्तु ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए तो रक्षणकारी है । 'मै सर्व प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता हूँ ऐसा पच्चक्खान (प्रत्याख्यान) होनेपर भी नदी उतरने जैसे प्राणातिपातरूप प्रसगकी आज्ञा करनी पड़ी है, जिस आज्ञाका, यदि लोकसमुदायके विशेष समागमपूर्वक साधु आराधन करेगा, तो पचमहाव्रतके निर्मूल होनेका समय आयेगा ऐसा जानकर भगवानने नदी पार करनेकी आज्ञा दी है। वह आज्ञा प्रत्यक्ष प्राणातिपातरूप होनेपर भी पॉच महाव्रतकी रक्षाका अमूल्य हेतुरूप होनेसे प्राणातिपातकी निवृत्तिरूप है, क्योकि पाँच महाव्रतोकी रक्षाका हेतु ऐसा जो कारण, वह प्राणातिपातकी निवृत्तिका भी हेतु ही है । प्राणातिपात होनेपर भी अप्राणातिपातरूप, ऐसी नदी पार करनेकी आज्ञा होती है, तथापि 'सर्व प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता है, इस वाक्यको उस कारणसे एक बार हानि पहुँचती है, जो हानि फिरसे विचार करते हुए तो उसकी विशेप दृढताके लिये प्रतीत होती है, वैसा ही दूसरे व्रतोंके लिये है । 'परिग्रहको सर्वथा निवृत्ति करता हूँ' ऐसा व्रत होनेपर भी वस्त्र, पात्र, पुस्तकका सम्बन्ध देखनेमे आता है, वे अगीकार किये जाते है, वे परिग्रहकी सर्वथा निवृत्तिके कारणको किसी प्रकारसे रक्षणरूप होनेसे कहे है, और इससे परिणामतः अपरिग्रहरूप होते है। मूर्छारहितरूपसे नित्य आत्मदशा बढनेके लिये पुस्तकका अगीकार करना कहा है। तथा इस कालमे शरीर संहननकी हीनता देखकर, चित्तस्थितिका प्रथम समाधान रहनेके लिये वस्त्र पात्रादिका ग्रहण करना कहा है, अर्थात् जब आत्महित देखा तो परिग्रह रखना कहा है। प्राणातिपात क्रिया-प्रवर्तन कहा है, परन्तु भावकी दृष्टिसे इसमे अन्तर है। परिग्रहबुद्धिसे अथवा प्राणातिपातबुद्धिसे इसमेसे कुछ भी करनेके लिये कभी भगवानने नही कहा है। भगवानने जहाँ सर्वथा निवृत्तिरूप पाँच महाव्रतोका उपदेश दिया है, वहाँ भी दूसरे जीवोंके हितके लिये कहा है, और उसमे उसके त्याग जैसे दिखाई देनेवाले अपवादको भी आत्महितके लिये कहा है, अर्थात् एक परिणाम होनेसे त्याग की हुई क्रिया ग्रहण करायी है। 'मैथुनत्याग' मे जो अपवाद नही हे उसका हेतु यह है कि रागद्वेषके बिना उसका भग नही हो सकता, और रागद्वेष आत्माके लिये अहितकारी है, जिससे भगवानने उसमे कोई अपवाद नही कहा है। नदी पार करना रागद्वेषके बिना भी हो सकता है, पुस्तक आदिका ग्रहण करना भी वैसे हो सकता है; परन्तु मैथुनसेवन वैसे नही हो सकता, इसलिये भगवानने यह व्रत अनपवाद कहा है, ओर दूसरे व्रतोमे आत्महितके लिये अपवाद कहे हैं, ऐसा होनेसे, जैसे जीवका, सयमका रक्षण हो, वैसा कहनेके लिये जिनागम है। पत्र लिखने या समाचारादि कहनेका जो निपेध किया है, वह भी इसी हेतुसे है । लोकसमागम बढे, प्रीति-अप्रीतिकै कारण बडे, स्त्री आदिके परिचयमे आनेका हेतु हो, सयम ढीला हो, उस उस प्रकारका परिग्रह बिना कारण अगीकृत हो, ऐसे मान्निपातिक अनंत कारण देखकर पत्रादिका निषेध किया है, तथापि वह
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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