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________________ २७ वौ वर्ष ४०९ भी अपवादसहित है। 'बृहत्कल्प' मे अनार्यभूमिमे विचरनेका निषेध किया है, और वहाँ क्षेत्रमर्यादा की है, परन्तु ज्ञान, दर्शन और सयमके हेतुसे वहाँ विचरनेका भी विधान किया है । इसी आधारसे यह ज्ञात होता है कि किन्ही ज्ञानीपुरुषका दूर रहता होता हो, उनका समागम होना मुश्किल हो, और पत्र-समाचारके सिवाय दूसरा कोई उपाय न हो, तो फिर आत्महितके सिवायकी दूसरी सर्व प्रकारकी बुद्धिका त्याग करके, वैसे ज्ञानीपुरुपकी आज्ञासे अथवा किसी मुमुक्षु सत्सगोकी सामान्य आज्ञासे वैसा करनेका जिनागमसे निषेध नही होता ऐसा प्रतीत होता है। क्योकि जहाँ पत्र-समाचार लिखनेसे आत्महितका नाश होता हो, वही उसका निषेध किया गया है। जहाँ पत्र-समाचार न होनेसे आत्महितका नाश होता हो, वहाँ पत्र समाचारका निषेध किया हो, यह जिनागमसे कैसे हो सकता है ? यह अब विचारणीय है। ___ इस प्रकार विचार करनेसे जिनागममे ज्ञान, दर्शन और सयमके सरक्षणके लिये पत्र-समाचारादिके व्यवहारका भी स्वीकार करनेका समावेश होता है, तथापि वह किसी कालके लिये, किसी महान प्रयोजनके लिये, महात्मा पुरुषोकी आज्ञासे अथवा केवल जीवके कल्याणके कारणमे ही उसका उपयोग किसी पात्रके लिये है, ऐसा समझना योग्य है । नित्यप्रति और साधारण प्रसंगमे पत्र-समाचारादिका व्यवहार सगत नही है, ज्ञानीपुरुषके प्रति उनकी आज्ञासे नित्यप्रति पत्रादि व्यवहार सगत है, तथापि दूसरे लौकिक जीवके कारणमे तो सर्वथा निषेध प्रतीत होता है। फिर काल ऐसा आया है कि जिसमे ऐसा कहनेसे भी विषम परिणाम आये । लोकमार्गमे प्रवृत्ति करनेवाले साधु आदिके मनमे यह व्यवहारमार्गका नाश करनेवाला भासमान होना सभव है, तथा इस मार्गको समझानेसे भी अनुक्रमसे बिना कारण पत्र-समाचारादि चालू हो जाये कि जिससे विना कारण साधारण द्रव्यत्याग भी नष्ट हो जाये। ऐसा समझकर यह व्यवहार प्रायः अबालाल आदिसे भी नही करें, क्योकि वैसा करनेसे भी व्यवसायका बढना सभव है। यदि आपको सर्व पच्चक्खान हो तो फिर पत्र न लिखनेका साधुने जो पच्चक्खान दिया है, वह नही दिया जा सकता। तथापि दिया हो तो भी इसमे आपत्ति न माने, वह पच्चक्खान भी ज्ञानीपुरुपकी वाणीसे रूपातर हुआ होता तो हानि न थी, परन्तु साधारणरूपसे रूपातर हुआ है, वह योग्य नही हुआ । यहाँ मूल स्वाभाविक पच्चक्खानकी व्याख्या करनेका अवसर नही है, लोकपच्चक्खानको वातका अवसर है, तथापि वह भी साधारणतया अपनी इच्छासे तोडना ठीक नही, अभी तो ऐसा दृढ विचार ही रखे। गुण प्रगट होनेके साधनमे जब रोध होता हो, तब उस पच्चक्खानको ज्ञानीपुरुपकी वाणीसे या मुमुक्षुजीवके सत्सगसे सहज आकारफेर होने देकर रास्तेपर लाये क्योकि बिना कारण लोगोमे शंका उत्पन्न होने देनेकी बात योग्य नही है। अन्य पामरजीवोको विना कारण वह जीव अहितकारी होता है । इत्यादि अनेक हेतु मानकर यथासभव पत्रादि व्यवहार कम करना ही योग्य है। हमारे प्रति कभी वैसा व्यवहार करना आपके लिये हितकारी है, इसलिये करना योग्य लगता हो तो वह पत्र श्री देवकरणजी जैसे किसी सत्सगीको पढवा कर भेजे, कि जिससे 'ज्ञानचर्चाके सिवाय इसमे कोई दूसरी बात नही हे', ऐसा उनका साक्षित्व आपके आत्माको दूसरे प्रकारके पत्र-व्यवहारको करते हुए रोकनेका कारण हो । मेरे विचारके अनुसार ऐसे प्रकारमे श्री देवकरणजी विरोध नहीं समझेंगे, कदाचित् उन्हे वैसा लगता हो तो किसी प्रसगमे उनकी वह आशका हम निवृत्त करेंगे, तथापि आपको प्राय विशेष पय-व्यवहार करना योग्य नहीं है इस लक्ष्यको न चूकियेगा । 'प्राय' शब्दका अर्थ यह है कि मात्र हितकारी प्रसगमे पत्रका कारण कहा है, उसमे बाधा न आये । विशेष पत्र-व्यवहार करनेसे यदि वह ज्ञानच रूप होगा तो भी लोकव्यवहारमे बहत आशकाका कारण होगा । इसलिये जिस प्रकार प्रसग प्रसगपर आत्महितार्थ हा उसका सोच-विचार करना योग्य है। आप हमारे प्रति किमी ज्ञानप्रश्नके लिये पत्र लिखना चाहे तो वह यी देवकरणजोको पूछकर लिखे कि जिससे आपको गुणप्राप्तिमे कम वाधा हो।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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