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________________ २७ वॉ वर्ष सद्गुरुके वचनको आराधनासे उद्भूत होता है । सिद्धातज्ञानका कारण उपदेशज्ञान है । सद्गुरु या सत्शास्त्रसे जीव पहले यह ज्ञान दृढ होना योग्य है कि जिस उपदेशज्ञानका फल वैराग्य और उपशम है । वैराग्य और उपशमका वल वढनेसे जीवमे सहज ही क्षयोपशमकी निर्मलता होती है, और सहज सहजमे सिद्धातज्ञान होनेका कारण होता है। यदि जीवमे असगदशा आ जाये तो आत्मस्वरूपका समझना एकदम सरल हो जाता है, और उस असगदशाका हेतु वैराग्य और उपशम है, जिसे जिनागममे तथा वेदातादि अनेक शास्त्रोमे वारंवार कहा है-विस्तारसे कहा है । अत नि सशयतासे वैराग्य - उपशमके हेतुभूत योगवासिष्ठादि जैसे सद्ग्रन्थ विचारणीय है । ४०७ हमारे पास आनेमे किसी किसी प्रकारसे आपके साथी श्री देवकरणजीका मन रुकता था, और यह रुकना स्वाभाविक है, क्योकि हमारे विषय मे सहज ही शका उत्पन्न हो ऐसे व्यवहारका प्रारब्धवशात् हमे उदय रहता है, और वैसे व्यवहारका उदय देखकर प्राय' हमने 'धर्मसम्बन्धी' सगमे लौकिक एवं लोकोत्तर प्रकारसे मेलजोल नही किया, कि जिससे लोगोको हमारे इस व्यवहारके प्रसगका विचार करनेका अवसर कम आये । आपसे या श्री देवकरणजीसे अथवा किसी अन्य मुमुक्षुसे किसी प्रकारकी कुछ भी परमार्थकी बात की हो, उसमे मात्र परमार्थके सिवाय कोई अन्य हेतु नही है । इस ससारके विषम एव भयकर स्वरूपको देखकर हमे उससे निवृत्त होनेका वोध हुआ, जिस वोधसे जीवमे शाति आकर समाधिदशा हुई, वह बोध इस जगतमे किसी अनंत पुण्यके योगसे जीवको प्राप्त होता है, ऐसा महात्मा पुरुष पुन पुनः कह गये है । इस दु.षमकालमे अधकार प्रगट होकर बोधका मार्ग आवरण-प्राप्त हुए जेसा हुआ है । इस कालमे हमे देहयोग मिला, यह किसी प्रकारसे खेद होता है, तथापि परमार्थसे उस खेदका भी समाधान होता रहा है, परन्तु उस देहयोगमे कभी-कभी किसी मुमुक्षुके प्रति कदाचित् लोकमार्गका प्रतिकार पुन पुन कहना होता है, ऐसा ही एक योग आपके और श्री देवकरणजीके सम्वन्धमे सहज ही हो गया है । परन्तु इससे आप हमारा कथन मान्य करें, ऐसे आग्रहके लिये कुछ भी कहना नही होता हितकारी जानकर उस बातका आग्रह किया रहता है या होता है, इतना ध्यान रहे तो किसी तरह सगका फल होना सम्भव है । यथासम्भव जीवके अपने दोषके प्रति ध्यान करके, दूसरे जीवोके प्रति निर्दोष दृष्टि रखकर प्रवृत्ति करना, और जैसे वैराग्य-उपशमका आराधन हो वैसे करना यह प्रथम स्मरणयोग्य वात है । ५०१ आ० स्व० नमस्कार प्राप्त हो । वंबई, वैशाख वदी ७, रवि, १९५० सूर्यपुरस्थित शुभेच्छासपन्न आर्य श्री लल्लुजी, प्राय जिनागममे सर्वविरति साधुको पत्र, समाचारादि लिखनेकी आज्ञा नही है, और यदि वैसी सर्वंविरति भूमिकामे रहकर करना चाहे तो वह अतिचार योग्य समझा जाता है। इस प्रकार साधारणतया शास्त्रका उद्देश है, और वह मुख्य मागंसे तो यथायोग्य लगता है, तथापि जिनागमकी रचना पूर्वापर अविरोध प्रतीत होती है, और वैसा अविरोध रहने के लिये पत्र- समाचारादि लिखने की आज्ञा किसी प्रकारसे जिनागममे है, उसे आपके चित्तका समाधान होनेके लिये यहाँ सक्षेपमे लिखता हूँ । जिनेन्द्रकी जो जो आज्ञाएँ है वे सब आज्ञाएँ, सवं प्राणी अर्थात् जिनकी आत्म-कल्याणको कुछ इच्छा है उन सबको, वह कल्याण जिस प्रकार उत्पन्न हो और जिस प्रकार वह बुद्धिगत हो, तथा जिस प्रकार उस कल्याणकी रक्षा की जा सके, उस प्रकारसे वे आज्ञाएँ की है। यदि जिनागममे कोई ऐसी आज्ञा कही हो कि वह आज्ञा अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके सयोगमे न पल सक्नेके कारण आत्मा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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