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________________ २६ वा वर्ष ३८९ हम स्वय किसीको आदेशबात अर्थात् 'ऐसा करना' यो नही कहते । वारवार पूछे तो भी यह स्मृतिमे होता है । हमारे सगमे आये हुए कई जीवोको अभी तक हमने ऐसा बताया नहीं है कि ऐसे वर्तन करें या ऐसा करें। मात्र शिक्षाबोधके रूपमे बताया होगा। ४ हमारा उदय ऐसा है कि ऐसी उपदेशबात करते हुए वाणी पीछे खिंच जाती है। साधारण प्रश्न पूछे तो उसमे वाणी प्रकाश करती है, और ऐसी उपदेशवातमे तो वाणी पीछे खिंच जाती है, इससे हम ऐसा जानते हैं कि अभी वैसा उदय नही है । ५ पूर्वकालमे हुए अनन्त ज्ञानी यद्यपि महाज्ञानी हो गये हैं, परन्तु उससे जीवका कुछ दोष नही जाता, अर्थात् इस समय जीवमे मान हो तो पूर्वकालमे हुए ज्ञानी कहने नही आयेंगे, परन्तु हाल जो प्रत्यक्ष ज्ञानी विराजमान हो वे हो दोषको बतलाकर निकलवा सकते है। जैसे दूरके क्षीरसमुद्रसे यहाँके तृषातुरकी तृषा शात नही होती, परन्तु एक मीठे पानीका कलश यहाँ हो तो उससे तृपा शात होती है। ६ जीव अपनी कल्पनासे मान लें कि ध्यानसे कल्याण होत है या समाधिसे या योगसे या ऐसे ऐसे प्रकारसे, परन्तु उससे जीवका कुछ कल्याण नही होता। जीवका कल्याण होना तो ज्ञानीपुरुपके लक्ष्यमे होता है, और उसे परम सत्सगसे समझा जा सकता है, इसलिये वैसे विकल्प करना छोड देना चाहिये ।। ७ जीवको मुख्यमे मुख्य इस बातपर विशेष ध्यान देना योग्य है कि सत्सग हुआ हो तो सत्सगमे सुना हुआ शिक्षाबोध परिणत होकर जीवमे उत्पन्न हुए कदाग्रहादि दोप तो सहजमे ही छूट जाने चाहिये, कि जिससे दूसरे जीवोको सत्सगका अवर्णवाद बोलनेका मौका न मिले । ८ ज्ञानीपुरुषोने कहना बाकी नही रखा, परन्तु जोवने करना बाकी रखा है। ऐसा योगानुयोग किसी समय ही उदयमे आता है। वैसी वाछासे रहित महात्माकी भक्ति तो सर्वथा कल्याणकारक ही सिद्ध होती है, परन्तु किसी समय महात्माके प्रति वैसी वाछा हुई और वैसी प्रवृत्ति हो चुकी, तो भी वही वाछा यदि असत्पुरुषके प्रति की हो और जो फल होता है उसको अपेक्षा इसका फल भिन्न होना सभव है। सत्पुरुषके प्रति वैसे कालमे यदि नि शकता रही हो, तो समय आनेपर उनके पाससे सन्मार्गकी प्राप्ति हो सकती है। एक प्रकारसे हमे स्वय इसके लिये बहुत शोक रहता था, परन्तु उसके कल्याणका विचार करके शोकका विस्मरण किया है ।। ९ मन, वचन, कायाके योगमेसे जिसे केवलीस्वरूप भाव होनेसे अहभाव मिट गया है, ऐसे जो ज्ञानीपुरुष, उसके परम उपशमरूप चरणारविंदको नमस्कार करके, नारवार उसका चिन्तन करके आप उसी मार्गमे प्रवृत्तिकी इच्छा करते रहे, ऐसा उपदेश देकर यह पत्र पूरा करता हूँ। विपरीत कालमे एकाकी होनेसे उदास ।।। ४६७ खभात, भादो, १९४९ अनादिकालसे विपर्यय बुद्धि होनेसे, और ज्ञानीपुरुषकी कितनी ही चेष्टाएँ अज्ञानीपुरुष जैसी दिखायी देनेसे ज्ञानोपुरुषके विषयमे विभ्रम बुद्धि हो आतो है, अथवा जीवको ज्ञानीपुरुषके प्रति उस उस चेष्टाका विकल्प आया करता है। यदि दूसरो दृष्टियोसे ज्ञानोपुरुषका यथार्य निश्चय हुआ हो तो किमी विकल्पको उत्पन्न करनेवालो ऐमो ज्ञानीको उन्मत्तादि भाववाली चेष्टा प्रत्यक्ष देखनेमे आये तो भी दूसरी दृष्टिके निश्चयके वलके कारण वह चेष्टा अविकल्परूप होती है, अथवा ज्ञानीपुष्पकी चेष्टाकी कोई
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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