SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ श्रीमद् राजचन्द्र गत वर्ष मगसिर सुदी छठको यहाँ आना हुआ था, तबसे आज दिदसपर्यंत अनेक प्रकारके उपाधियोगका वेदन करना हुआ है और यदि भगवत्कृपा न हो तो इस कालमे वैसे उपाधियोगमे धडके ऊपर सिरका रहना कठिन हो जाये, ऐसा होते होते अनेक बार देखा है, और जिसने आत्मस्वरूप जाना है ऐसे पुरुषका और इस ससारका मेल न खाये, ऐसा अधिक निश्चय हुआ है । ज्ञानीपुरुष भी अत्यन्त निश्चयात्मक उपयोगसे वर्तन करते करते भी क्वचित् मद परिणामी हो जाये, ऐसी इस ससारकी रचना है । यद्यपि आत्मस्वरूप सम्बन्धी बोधका नाश तो नही होता, तथापि आत्मस्वरूपके बोधके विशेप परिणामके प्रति एक प्रकारका आवरण होनेरूप उपाधियोग होता है। हम तो उस उपाधियोगसे अभी त्रास पाते रहते है, और उस उस योगमे हृदयमे और मुखमे मध्यमा वाचासे प्रभुका नाम रखकर मुश्किलसे कुछ प्रवृत्ति करके स्थिर रह सकते है। सम्यक्त्वमे अर्थात् वोधमे भ्राति प्राय नही होती, परन्तु वोधके विशेष परिणामका अनवकाश होता है, ऐसा तो स्पष्ट दिखायी देता है । और उससे आत्मा अनेक बार आकुलता-व्याकुलताको पाकर त्यागका सेवन करता था, तथापि उपार्जित कर्मको स्थितिका समपरिणामसे, अदीनतासे, अव्याकुलतासे वेदन करना, यही ज्ञानीपुरुषोका मार्ग है, और उसीका सेवन करना है, ऐसी स्मृति होकर स्थिरता रहती आयी है, अर्थात् आकुलादि भावकी होती हुई विशेष घबराहट समाप्त होती थी। जब तक दिन भर निवृत्तिके योगमे समय न बीते तब तक सुख न रहे, ऐसी हमारी स्थिति है। "आत्मा आत्मा," उसका विचार, ज्ञानीपुरुषकी स्मृति, उनके माहात्म्यको कथावार्ता, उनके प्रति अत्यन्त भक्ति, उनके अनवकाश आत्मचारित्रके प्रति मोह, यह हमे अभी आकर्षित किया करता है, और उस कालकी हम रटन किया करते है। पूर्वकालमे जो जो ज्ञानीपुरुपके प्रसग व्यतीत हुए है उस कालको धन्य है, उस क्षेत्रको अत्यन्त धन्य है, उस श्रवणको, श्रवणके कर्ताको, और उसमे भक्तिभाववाले जीवोको त्रिकाल दडवत् है । उस आत्मस्वरूपमे भक्ति, चिन्तन, आत्मव्याख्याता ज्ञानीपुरुषकी वाणी अथवा ज्ञानीके शास्त्र या मार्गानुसारी ज्ञानीपुरुपके सिद्धात, उसकी अपूर्वताको अतिभक्तिसे प्रणाम करते है। अखड आत्मधुनके एकतार प्रवाहपूर्वक वह बात हमे अद्यापि भजनेकी अत्यन्त आतुरता रहा करती है, और दूसरी ओरसे ऐसे क्षेत्र, ऐसा लाकप्रवाह, ऐसा उपाधियोग और दूसरे दूसरे वैसे वैसे प्रकार देखकर विचार मूर्छावत् होता है। ईश्वरेच्छा। प्रणाम प्राप्त हो। पेटलाद, भादो सुदी ६, १९४९ १ जिससे धर्म मांगे, उसने धर्म प्राप्त किया है या नही उसकी पूर्ण चौकसी करे, इस वाक्यका स्थिर चित्तसे विचार करे। २ जिससे धर्म माँगे, वैसे पूर्ण ज्ञानीको पहचान जीवको हुई हो, तो वैसे ज्ञानियोका सत्सग करे और सत्सग हो, उसे पूर्ण पुण्योदय समझे। उस सत्संगमे वैसे परमज्ञानीके द्वारा उपदिष्ट शिक्षाबोधको ग्रहण करे कि जिससे कदाग्रह, मतमतातर, विश्वासघात और असत् वचन इत्यादिका तिरस्कार हो, अर्थात् उन्हे ग्रहण नही करे। मतका आग्रह छोड़ दे। आत्माका धर्म आत्मामे है। आत्मत्वप्राप्तपुरुषके द्वारा उपदिष्ट धर्म आत्मतामार्गरूप होता है। बाकीके मार्गके मतमे नही पडे । . ३ इतना होनेपर भी यदि जीवसे सत्संग होनेके बाद कदाग्रह, मतमतातरादि दोष छोड़े न जा सकते हो तो फिर उसे छूटनेकी आशा नही करनी चाहिये ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy