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________________ ३९० श्रीमद् राजचन्द्र अगम्यता ही ऐसी हे कि अधूरी अवस्थासे अथवा अधूरे निश्चयसे जीवके लिये विभ्रम और विकल्पका कारण होती है। परन्तु वास्तविक रूपमे तथा पूरा निश्चय होनेपर वह विभ्रम और विकल्प उत्पन्न होने योग्य नहीं है, इसलिये इस जीवको ज्ञानीपुरुपके प्रति अपूरा निश्चय है, यही इस जीवका दोष है। ज्ञानीपुरुष सभी प्रकारसे चेप्टारूपसे अज्ञानीपुरुपके समान नही होते, और यदि हो तो फिर ज्ञानी नही हे ऐसा निश्चय करना वह यथार्थ कारण है; तथापि ज्ञानी और अज्ञानी पुरुपमे किन्ही ऐसे विलक्षण कारणोका भेद है, कि जिससे ज्ञानो और अज्ञानोका किसी प्रकारसे एक रूप नही होता । अज्ञानी होनेपर भी जो जोव अपनेको ज्ञानीस्वरूप मनवाता हो, वह उस विलक्षणताके द्वारा निश्चयमे आता है। इसलिये ज्ञानीपुरुपको जो विलक्षणता है, उसका निश्चय प्रथम विचारणीय हे, और यदि वैसे विलक्षण कारणका स्वरूप जानकर ज्ञानीका निश्चय होता है तो फिर अज्ञानी जैसी क्वचित जो जो चेष्टा ज्ञानीपुरुपकी देखनेमे आतो है, उसके विपयमे निर्विकल्पता प्राप्त होती है, अर्थात् विकल्प नहीं होता, प्रत्युत ज्ञानोपुरुपकी वह चेष्टा उसके लिये विशेष भक्ति और स्नेहका कारण होती है। __ प्रत्येक जीव अर्थात् ज्ञानो, अज्ञानी यदि सभी अवस्थाओमे सरीखे ही हो तो फिर ज्ञानी और अज्ञानो यह नाम मात्र होता है, परन्तु वैसा होना योग्य नही हे । ज्ञानोपुरुप और अज्ञानोपुरुपमे अवश्य विलक्षणता होना योग्य है। जो विलक्षणता यथार्थ निश्चय हानेपर जीवको समझनेमे आती है, जिसका कुछ स्वरूप यहाँ बता देना योग्य है। मुमुक्षुजोवको ज्ञानीपुरुप और अज्ञानीपुरुषको विलक्षणता उनकी अर्थात् ज्ञानो और अज्ञानी पुरुषको दशा द्वारा समझमे आती है। उस दशाकी विलक्षणता जिस प्रकारसे होती है, वह बताने योग्य है। एक तो मलदशा और दूसरो उत्तरदशा, ऐसे दो भाग जोवको दशाक हा सकते हैं। [अपूर्ण] ४६८ बवई, भाद्रपद, १९४९ अज्ञानदशा रहती हो और जीवने भ्रमादि कारणसे उस दशाको ज्ञानदशा मान लिया हो, तव दहको उस उस प्रकारके दुख होनेके प्रसगोमे अथवा वैसे अन्य कारणोमे जीव देहकी साताका सेवन करनेकी इच्छा करता है, और वैसा वर्तन करता है। सच्ची ज्ञानदशा हो तो उसे देहकी दुखप्राप्तिके कारणोमे विपमता नही होती, और उस दुखको दूर करनेको इतनी अधिक परवा भी नही होती । बबई, भादो वदी ३०, १९४९ जैसी दृष्टि इस आत्माके प्रति है, वैसो दृष्टि जगतके सर्व आत्माओंके प्रति है। जैसा स्नेह इस आत्माके प्रति है, वैसा स्नेह सर्व आत्माओके प्रति है। जैसी इस आत्माकी सहजानन्द स्थिति चाहते हैं, वैसी ही सर्व आत्माओकी चाहते है। जो जो इस आत्माके लिये चाहते है, वह सब सर्व आत्माओके लिये चाहते हैं । जैसा इस देहके प्रति भाव रखते है, वैसा ही सर्व देहोके प्रति भाव रखते है। जैसा सर्व देहोके प्रति बर्ताव करनेका प्रकार रखते हैं, वैसा ही प्रकार इस देहके प्रति रहता है । इस देहमे विशेष बुद्धि और दूसरी देहोमे विषम बुद्धि प्राय कभी भी नही हो सकती। जिन स्त्री आदिका आत्मीयतासे सम्बन्ध गिना जाता है, उन स्त्री आदिके प्रति जो कुछ स्नेहादिक है, अथवा समता है, वैसा ही प्राय सर्वके प्रति रहता है । आत्मरूपताके कार्यमे मात्र प्रवृत्ति होनेसे जगतके सर्व पदार्थोके प्रति जैसी उदासीनता रहती है, वैसी आत्मीय गिने जानेवाले स्त्री आदि पदार्थोके प्रति रहती है। प्रारब्धके प्रवधसे स्त्री आदिके प्रति जो कुछ उदय हो उससे विशेष वर्तना प्रायः आत्मासे नही होती। कदाचित् करुणांसे कुछ वेसो विशेष वर्तना होती हो तो वैसी उसी क्षणमे वैसे उदयप्रतिबद्ध
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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